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Wednesday, June 26, 2013

वजूद का सच


तोड़कर भारी चट्टानें
 बनाया घर
 रोककर धार नदियों की
 बनाया बांध
 काटकर ऊंचे पहाड़
बनाया रास्ता
छेद कर पाताल
बनाया कुआं
पार कर क्षितिज
रखा कदम चांद पर
नकली बादलों से
जमीं पर बरसाया पानी
बंजर जमीन को सींच
बोया कृत्रिम अंकुर
क्या क्या नहीं किया ?
नदियों की धाराएँ मोड़ीं
हरे भरे पेड़ों को काटा
सुखाया सागरों को
कंक्रीट के जंगल बनाए

सपने की तरह उड़ना
तेज मन की तरह दौड़ना
सब कुछ आ गया मुट्ठी में
खुद से बेखबर रहने लगे

फिर आया एक जलजला
ढह गए सपनों के महल
बह गया इंसानी दंभ
सब छूट गया हाथ से फिसल
खोया खुद को
खो गए सब अपने
ना बचे खुद
ना बचे सपने
....रजनीश (26.06.13)

Saturday, August 6, 2011

लकीर

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कभी
एक लकीर खींची थी
मैंने जमीन पर
आज कोशिश की
उसे मिटाने की,
आज लड़ा उस लकीर से
अपनी जमीन पर गड्ढे
कर लिए मैंने
मिट्टी निकाली उस
गहराती लकीर पर डालने लगा
मिट्टी निकालते -निकालते...
 फिसल गया गड्ढे  में
 हाथ-पैर टूट गए
और लकीर गहराती रही ..
ये लकीर  ऊंची दीवार लगती है ..
अब उस लकीर से घिरा
लहूलुहान सोचता हूँ
आखिर खींची ही क्यूँ
ये लकीर मैंने
क्यों बनाई ये सीमा
लकीरें खींचने की ये लत
बहुत तकलीफ देती है,
हर बार दिल पर निशान पड़ते हैं
पर  क्या करूँ ,
मजबूर हूँ...
....रजनीश (05.01.11)

Saturday, June 18, 2011

बारिश

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धूप ने महीनों सुखाया था मिट्टी को
आखिरी बूंद तक निकाल ले गई थी
जली हुई जमीं की  राख़ उड़ती थी हवा में
छांव की ठंडक हवा संग बह गई थी

गरम थपेड़ों की मार ने
झुलसाया था दीवारों को
हर झरोखे में तड़पती
एक प्यास दिखने लगी थी

मिल गई थी तपिश
भीतर की जलन से
छू लेता था अगर कुछ
तो आग  लग जाती थी

फिर एक झरोखे से कूद कर
आई एक सोंधी खुश्बू
एक नमी का अहसास
पानी की एक बूंद मिट्टी से मिली थी

फिर, हर तरफ बूंदे ही बूंदे
बुझा रही थी जमीं की प्यास
पूरी ताकत और आवाज के साथ गिरती बूंदें
जमीं को तरबतर कर रहीं थीं

तैयार होकर आई थीं बूंदे
बादल और बिजली के साथ
बूंदे  मिट्टी में  बह रहीं थी कतार बांधे
एक बारिश मेरे भीतर हो रही थी
...रजनीश (18.06.2011)

Thursday, June 2, 2011

हवा

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अभी कुछ पल ही बीते
धूप बिखेर रही थी अंगारे
जमीन  कर रही थी कोशिश
कहीं छूप जाने की
फिर अचानक
धूप में मिलने लगी धूल
हवा चलते चलते दौड़ने लगी
दौड़ते दौड़ते उड़ने लगी
बन गई भयंकर आँधी
और उड़ाने लगी सब कुछ
जो उसके रास्ते में आया
पहले झुके फिर टूट भी गए पेड़
उड़ गए घोंसले और उड़ गईं छतें आशियानों की
हवा भाग रही थी बदहवास
उसका आवेग उसका आवेश देख
मैं सकते में था
न ही थी उसकी कोई दिशा निर्धारित
लगा जैसे कोई अंतर्द्वंद
चल रहा था उसके अंदर
पहले कभी देखा नहीं था
हवा को इस तरह भागते बदहवास ,
इतनी शक्ति लगाते,
बिजली से  चुभा-चुभा कर 
बादलों को भी उसने नीचे लाकर पटक दिया
और जमीन को पूरा भिगो दिया
किया विध्वंस हर तरफ
मैं कहता रह गया उससे कि
खड़े रहने दो मुझे इस मैदान में
मुझे समझना है तुम्हारी इस हालात की वजह
पर उसने एक न सुनी
जब उखड़ने लगे मेरे पैर
तो उससे दूर हुआ
और घर की बालकनी से
देखने लगा  हवा का धूल ,धूप और 
पानी के साथ  तांडव
पर इस जद्दोजहद के बाद
इतना तो समझ पाया
कि हवा उद्वेलित है
रुष्ट भी है और आतंकित भी
इसीलिए रौद्र रूप धारण किया है
धूप, धूल और बादल भी उसके साथ हैं
इस मोर्चे में ,
उसने बताया  तो नहीं
पर मुझे हुआ ये महसूस कि
उसे इस बिगड़े हाल में
पहुंचाने वाले हम ही हैं  ...
...रजनीश (01.06.2011)

Wednesday, January 5, 2011

लकीर

DSC00253
कभी 
एक लकीर खींची थी
मैंने , जमीन पर /
आज कोशिश की
उसे मिटाने की/
आज लड़ा उस लकीर से /
अपनी जमीन पर गड्ढे
कर लिए मैंने/
मिट्टी निकाली, उस
गहराती लकीर पर डालने/
मिट्टी निकालते -निकालते...
गड्ढे  में ही फिसल गया /
अपने हाथ-पैर
ही तुड़वा बैठा !
और लकीर गहराती रही ...
ये लकीर  ऊंची दीवार लगती है ...
अब उस लकीर से घिरा, लहूलुहान ,
सोचता हूँ ...
आखिर , खींची ही क्यूँ
ये लकीर मैंने ,
क्यों बनाई ये सीमा  !!!
लकीरें खींचने की
ये लत ,
बहुत तकलीफ देती है,
हर बार दिल पर निशान पड़ते हैं /
पर  क्या करूँ ,
मजबूर हूँ...
....रजनीश (05.01.11)
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