आज अपनी एक पुरानी पोस्ट की हुई एक कविता पेश कर रहा हूँ
बहुत पहले लिखी थी
शायद आपने नहीं पढ़ा होगा इसे ...
लगा था कोई,
अपना सा / हिस्सा खुद का लगा था....
देखा था उसे -भीड़ में /
नया था पर लग रहा पुराना था/
जैसे खोया था कभी पहले कहीं
अब आ मिला था ....
जैसे टूटा था कभी पहले कहीं ,
अब आ जुड़ा था
अपना ही था या दूसरा अपने जैसा,
या फिर था कोई हिस्सा किसी सपने का
पर लगा था अपना /
ताजिंदगी हिस्से रहते हैं बिखरते / टूटते / जुड़ते / मिलते / बिछुड़ते .....
टूट कर गिरे बिखरे हिस्से एक जगह नहीं मिलते
कभी या कहूँ अक्सर कहीं पर भी नहीं .....
सारे हिस्से कभी नहीं होते साथ साथ ,
कुछ अनजाने हिस्सों से भी जुड़ना होता है सफर में ...
हिस्से बटोरने और जोड़ने में
खुद बंटते जाते हैं हम हिस्सों में ,
और ढूंढते रहते हैं हिस्सा कोई अपना .....
....रजनीश