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Thursday, July 14, 2011

अपना सा


आज अपनी एक पुरानी पोस्ट की हुई एक कविता पेश कर रहा हूँ 
बहुत पहले लिखी थी 
शायद आपने नहीं  पढ़ा होगा इसे ...

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लगा था कोई,
अपना सा / हिस्सा खुद का लगा था....
देखा था उसे -भीड़ में /
नया था पर लग रहा पुराना था/
जैसे खोया था कभी पहले कहीं
अब आ मिला था ....
जैसे टूटा था कभी पहले कहीं ,
अब आ जुड़ा था
अपना ही था  या दूसरा अपने जैसा,
या फिर था कोई हिस्सा किसी सपने का
पर लगा था अपना /
ताजिंदगी हिस्से रहते हैं बिखरते / टूटते / जुड़ते / मिलते / बिछुड़ते .....
 टूट कर गिरे बिखरे हिस्से एक जगह नहीं मिलते
कभी या कहूँ अक्सर कहीं पर भी नहीं .....
सारे हिस्से कभी नहीं होते साथ साथ   ,
कुछ अनजाने हिस्सों से भी जुड़ना होता है सफर में ...
हिस्से बटोरने और जोड़ने में
खुद बंटते जाते हैं हम  हिस्सों में ,
और ढूंढते रहते हैं हिस्सा कोई अपना .....
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....रजनीश
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....