(एक पुरानी कविता पुनः पोस्ट की है ...)
उतरने लगी है किरणें
सूरज से अब आग लेकर
जबरन थमा रहीं हैं तपिश
हवा की झोली में ,
सोख रहीं हैं
हर जगह से बचा-खुचा पानी
छोड़ कर अंगारे
जमीं के हाथों में ,
पर कलेजे में है मेरे एक ठंडक
हूँ मैं संयत, मुझे एक सुकून है ...
क्यूंकि किरणें बटोरती हैं पानी
छिड़कने के लिए वहाँ,
जिंदा रहने को कल
बोएंगे हम कुछ बीज जहां...
सींचने जीवन, असंख्य नदियों में
किरणें बटोरती हैं पानी...
मैं बस बांध लेता हूँ
सिर पर एक कपड़ा,
घर में रखता एक सुराही ,
जेब में एक प्याज भी ,
और करने देता हूँ काम
मजे से किरणों को,
सोचता हूँ ,मेरे अंदर
सूखता एक और पानी है
जो काम नहीं इन किरणों का
फिर वो कहाँ उड़ जाता है ?
दिल की दीवारों और आँखों को
चाहिए बरसात भीतर की
जो ज़िम्मेदारी नहीं इन किरणों की
इसका इंतजाम खुद करना होगा
वाष्पित करना होगा घृणा, वैमनस्य, दुष्टता ...
तब प्रेम भीतर बरसेगा...
...।रजनीश (06.05.2011)