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Monday, October 26, 2020

अच्छा - बुरा

अच्छा क्या है 
बुरा क्या है 
कुछ अच्छा कभी-कभीअच्छा नहीं  
कुछ बुरा कभी-कभी नहीं बुरा

किसे कहूं अच्छा 
किसे कहूं बुरा 
जो मेरे लिए अच्छा 
वो तुम्हारे लिए बुरा
जो तुम्हारे लिए अच्छा 
वो मेरे लिए बुरा 

जैसे जैसे 
पैमाने बदलते हैं 
वैसे वैसे 
अच्छे-बुरे के 
मायने बदलते हैं 
फिर अच्छा क्या है 
फिर बुरा क्या है 
ये सवाल , सवाल ही रहेगा
जब तक फैसला
 तुम्हारा होगा या मेरा 
 जवाब मिलेगा 
 जब फैसला 
 ना तुम्हारा ना मेरा 
 जब फैसला 
 इंसानियत करेगी 
 क्यूंकि इंसानियत से बड़ा 
 कुछ भी नहीं 

बुरा वहां 
जहां इंसानियत मर जाए
बुरा वहीं 
जहां इंसानियत हार जाए
अच्छी है वो बात 
अच्छी है वो चीज
जिसमें कोई भी हारे
 पर हो इंसानियत की जीत

.....रजनीश (२६.१०.२०२०, सोमवार)

Wednesday, September 26, 2018

जो बीत गया


जो बीत गया
सो बीत गया

कुछ खर्च किया
कुछ जोड़ लिया
कुछ रीत गया

कुछ सीख मिली
कुछ हार मिली
कुछ जीत गया

जो बीत गया
सो बीत गया

कभी साथ मिला
कहीं प्रीत मिली
कभी मीत गया

कोई गले मिला
कोई दूर रहा
कोई पीट गया

जो बीत गया
सो बीत गया

कहीं खुशी मिली
कभी रो लिया
कभी खीझ गया

कुछ बुरा रहा
कुछ अच्छा था
कुछ ठीक गया

जो बीत गया
सो बीत गया
...रजनीश (26.09.18)

Friday, August 3, 2018

अच्छा-बुरा

हर वक्त चुप रहने से कुछ कह देना ही अच्छा
सिर्फ कहने को कुछ कहने से चुप रहना ही अचछा

सही वक्त के इंतजार में चला जाता है सारा वक्त
इंतजार करते रहने से तो चल निकलना अच्छा

हर वक्त भागमभाग है बैचेनी और बदहवासी
रुक के कुछ पल साथ खुद के बैठ लेना अच्छा

दिल का गाना बेसुरा नहीं जज्बात में डूबा होता है
घबराकर रुक जाने से तो गुनगुना लेना अच्छा

सच को सच सच कहना नामुमकिन तो नहीं मगर
सच बस कड़वाहट लाए तब झूठ बोलना अच्छा

                                        ...रजनीश (03.08.18)

Sunday, January 22, 2012

बचपन की बात


बचपन के दिन थे 
कुछ ऐसे पल छिन थे 
ऊपर खुला आसमां था 
पूरा शहर अपना मकां था 

हर बगिया के बेर 
होते अपने थे 
खेलते कंचे और  
बुनते सपने थे 

ना दुनियादारी की झंझट 
ना कोई नौकरी का रोना 
बस काम था पढ़ना 
खेलना-कूदना और सोना  

पर तब क्या सब मिल जाता था 
क्या जैसा चाहा  हो जाता था 
क्या दिल तब नहीं दुखता था 
क्या कांटा तब कोई नहीं चुभता था 

दिल चाहता था उड़ना बाज की तरह 
खो जाना वादियों में गूँजती आवाज़ की तरह 
हर खिलौना  मेरी झोली में नहीं था 
मेरा बिछौना भी मखमली नहीं था 

बचपन में ही जाना पराया और अपना 
कि सच नहीं होता है हर एक सपना 
सीखी बचपन में ही चतुराई और लड़ाई 
अच्छे और बुरे की  समझ भी बचपन में आई 

अफसोस तब भी 
दर्द तब भी होता था 
कुंठा तब भी 
प्यार तब भी होता था 

कुछ बातें ऐसी थी 
लगता बचपन कब बीतेगा 
जैसे नियंत्रण में रहना 
और पढ़ना कब छूटेगा 

बस उम्र ही कम थी 
और सब कुछ वही था 
थोड़ी सोच कम थी 
इसलिए सब लगता सही था 

उत्सुकता ज्यादा 
और शंका कम थी 
सौहार्द्र ज्यादा और
 वैमनस्यता कम थी 

पर थे सब एहसास 
हर भावना मौजूद थी 
लगते थे संतोषी 
पर हर कामना मौजूद थी 

बचपन है आखिर जीवन का हिस्सा 
दिन वही और रात वही है 
बस कुछ रंग हैं अलग 
तस्वीर वही और बात वही है 

कोई बचपन महलों में रहता 
कोई फुटपाथ पे सो जाता है 
किसी को सब मिल जाता है 
कोई बचपन खो जाता है 

हर बचपन एक जैसा नहीं होता 
जैसे नहीं हर एक जवानी 
अलग अलग चेहरे हैं सबके 
सबकी अलग कहानी 
...रजनीश (22.01.2011)
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