(एक पुरानी कविता पुनः पोस्ट कर रहा हूँ कुछ संशोधन के साथ ....)
मैं हूँ एक खिलाड़ी
हरवक्त मेरे कदम
होते हैं किसी सीढ़ी के
एक पायदान या फिर
किसी साँप पर
फिसलते हुए
अहसासों और ख्यालों
के इन रस्तों में
बराबर जमीन
मिलती ही नहीं कभी
और मिली भी तो बस थोड़ी सी
पर खेल में वहाँ रुक नहीं सकता
ये सीढ़ियाँ सीधी नहीं होतीं,
इनमें होती है फिसलन ,
पायदानों पर उगती-टूटती, नयी-पुरानी ,
ख़्वाबों ख़यालों और अहसासों से बने
साँप और सीढ़ियाँ ...
एक दूसरे से जुड़ीं ये सीढ़ियाँ,
कुछ ऊपर जातीं,
कुछ 'पाये' ही नहीं होते कहीं,
कुछ पाये बड़े कमजोर ,
कोई हिस्सा बस हवा में होता है,
कुछ नीचे उतरतीं सीढ़ियाँ ...
सीढ़ियों पर चढ़ने का
एहसास भी कम नहीं
हासिल हो जाती है
कुछ ऊंचाई पर वहाँ
रुक पाना बड़ा कठिन
सीढ़ियों के कुछ हिस्से दलदल में,
कुछ मजबूती से बंधे जमीं से,
बीच होते हैं साँप भी,
कुछ छोटे और कुछ बहुत बड़े,
कई बार फिसल कर वहीं
पहुंचता हूँ जहां से की थी शुरुआत
लड़ते हैं आपस में ये
साँप और सीढ़ियाँ
कभी लगता है जैसे
ये आपस में मिल गए हों
मुझे फंसाए रखने के लिए
मैं पासे फेंकता रहता हूँ
और चलता जाता हूँ ,
बस ऊपर-नीचे ,
क्या करूँ
इस खेल से बाहर जा भी नहीं सकता,
दिन रात उलझाए रहते हैं
मुझे ये साँप और सीढ़ियाँ ....
...रजनीश (18.04.11))