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Friday, April 27, 2012

खेल साँप-सीढ़ी का ...


(एक पुरानी कविता पुनः पोस्ट कर रहा हूँ कुछ संशोधन के साथ ....)

मैं हूँ एक खिलाड़ी
हरवक्त मेरे कदम
होते हैं किसी सीढ़ी के
एक पायदान या फिर
किसी साँप पर
फिसलते हुए

अहसासों और ख्यालों
के इन रस्तों में
बराबर जमीन
मिलती ही नहीं कभी
और मिली भी तो बस थोड़ी सी
पर खेल में वहाँ रुक नहीं सकता

ये सीढ़ियाँ सीधी नहीं होतीं,
इनमें होती है फिसलन  ,
पायदानों पर  उगती-टूटती, नयी-पुरानी ,
ख़्वाबों ख़यालों और अहसासों से बने
साँप और सीढ़ियाँ ...

एक दूसरे से जुड़ीं ये सीढ़ियाँ,
कुछ ऊपर जातीं,
कुछ 'पाये'  ही नहीं होते कहीं,
कुछ पाये बड़े कमजोर ,
कोई हिस्सा बस हवा में होता है,
कुछ नीचे उतरतीं सीढ़ियाँ ...

सीढ़ियों पर चढ़ने का
एहसास भी कम नहीं
हासिल हो जाती है
कुछ ऊंचाई पर वहाँ
रुक पाना बड़ा कठिन

सीढ़ियों के कुछ हिस्से दलदल में,
कुछ मजबूती से बंधे जमीं से,
बीच होते हैं साँप भी,
कुछ छोटे और कुछ बहुत बड़े,
कई बार फिसल कर वहीं
पहुंचता हूँ जहां से की थी शुरुआत

लड़ते  हैं आपस में ये
साँप और सीढ़ियाँ
कभी लगता है जैसे
ये आपस में मिल गए हों
मुझे फंसाए रखने के लिए

मैं  पासे फेंकता रहता हूँ
और चलता जाता हूँ ,
बस  ऊपर-नीचे  ,
क्या करूँ
इस खेल से बाहर जा भी नहीं सकता,
दिन रात उलझाए रहते हैं
मुझे ये साँप और सीढ़ियाँ ....
...रजनीश (18.04.11))

Saturday, June 18, 2011

बारिश

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धूप ने महीनों सुखाया था मिट्टी को
आखिरी बूंद तक निकाल ले गई थी
जली हुई जमीं की  राख़ उड़ती थी हवा में
छांव की ठंडक हवा संग बह गई थी

गरम थपेड़ों की मार ने
झुलसाया था दीवारों को
हर झरोखे में तड़पती
एक प्यास दिखने लगी थी

मिल गई थी तपिश
भीतर की जलन से
छू लेता था अगर कुछ
तो आग  लग जाती थी

फिर एक झरोखे से कूद कर
आई एक सोंधी खुश्बू
एक नमी का अहसास
पानी की एक बूंद मिट्टी से मिली थी

फिर, हर तरफ बूंदे ही बूंदे
बुझा रही थी जमीं की प्यास
पूरी ताकत और आवाज के साथ गिरती बूंदें
जमीं को तरबतर कर रहीं थीं

तैयार होकर आई थीं बूंदे
बादल और बिजली के साथ
बूंदे  मिट्टी में  बह रहीं थी कतार बांधे
एक बारिश मेरे भीतर हो रही थी
...रजनीश (18.06.2011)

Sunday, January 9, 2011

कुछ अहसास ऐसे होते हैं ....

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आप इसे यहाँ मेरी आवाज में सुन सकते हैं ....
कुछ अहसास ऐसे होते हैं ....
जो रहते हैं  बहुत दूर, शब्दों से ,
पर उन्हे छूने  कहीं जाना नहीं होता,
बस यहीं खड़े ,
करना होता है बंद आंखे,
और वो खुद बंधे चले आते हैं ।

कुछ अहसास ऐसे होते हैं ....
जो  नहीं रहते हैं अब यहाँ ,
पर मरते नहीं  कभी, न बिछुड़ते हैं,
साल दर साल, 
जब भी पलाश पर फूल खिलता है ,
वो खुद मिलकर चले जाते हैं ।

कुछ अहसास ऐसे होते हैं....
जो बंधते नहीं किसी धागे से,
जिनका एक चेहरा नहीं होता ,
बस दो पल फुर्सत के निकाल,
करनी होती है बातें आइने से,
वो खुद ही सामने उभर आते हैं।

कुछ अहसास ऐसे होते हैं....
जो कभी जनम नहीं पाते ,
जिनकी किलकारियाँ सुनाई नहीं देती,
ज़िंदगी की इस दौड़ में,
इससे पहले कि  आ सकें  ऊपर,
वो पैरों तले रौंद दिये जाते हैं ।
............रजनीश (09.01.11)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....