तुम्हें जो खारा लगता है
वो सादा पानी होता है
समझते हो कि आँखों से
मेरा ये दिल टपकता है
मेरे आँसू क्या सस्ते हैं
गैरों के दर्द पर रोएँ
दिल नहीं दिखावा है
वही भीतर से रोता है
फंसा तो खुद में ही मैं हूँ
मुझे तो फिक्र अपनी है
परेशां खुद से ही मैं हूँ
तुम्हारी सुध मैं कैसे लूँ
मुझे फुर्सत कहाँ तुम्हारी
तकलीफ़ों पर मैं रोऊँ
मेरा करम मेरे सीने में
हर दिन दर्द पिरोता है
होता वो नहीं हरदम
नज़रों से जो दिखता है
छलावा है जहां, जिसमें
भरम का राज होता है
खेलते हो जब भी होली
किसी की सांस छीन कर तुम
लाल वो रंग नहीं होता
किसी का खून होता है
खुद को दोष क्या दूँ मैं
शिकायत क्या तेरी करूँ
मुझे हर कोई मुझ जैसा
खुद में खोया लगता है
था बनने चला जो ईंसां
ज़िंदगी की राहों पर
जानवर रह गया बनकर
हरदम अब ये लगता है
.....रजनीश (26.11.2011)