Showing posts with label पल. Show all posts
Showing posts with label पल. Show all posts

Monday, October 12, 2020

कुछ बातें इन दिनों की


जिंदगी रुक सी गई है
कदम जम से गए हैं 
एक वायरस के आने से
कुछ  पल थम से गए हैं 

कहीं  कब्र नसीब नहीं होती
कोई रातोरात जलाया जाता है
इंसानियत  शर्मसार होती है
उसे एक खबर बनाया जाता है 

कभी होती  नहीं हैं खबरें 
बनाई  जाती हैं
कभी होती नहीं जैसी
दिखाई जाती हैं 

जिसे समझा था दुश्मन
अल्हड़ बचपन का 
बन गया  लॉकडाउन  में
वो जरिया शिक्षण का

पास आने की चाहत
 पर दूर रहने की जरूरत
 किस ने कह दिया जिंदगी से
 मुसीबतें कम हो गई हैं ?

....रजनीश (१२.१०.२०२०, सोमवार)

Monday, May 28, 2018

घड़ी की टिक-टिक


वक्त गुजरता जाता है
समय बदलता जाता है
इक पल आता
इक पल जाता
पल दर पल मंजर बदलता
संसार बदलता जाता है
समय बदलता जाता है

जो मैं था
वो अब मैं नहीं
जो तुम थे
वो अब तुम नही
पल दर पल बदलते धागे
करार बदलता जाता है
समय बदलता जाता है

जो कोपल थी
अब पौधा है
जो पौधा था
अब दरख्त है
धरती पर दिन रात बदलते
और उसका श्रृंगार बदलता जाता है
समय बदलता जाता है

जो बूंद में था
अब दरिया में
जो दरिया में
अब सागर में
सागर से बादल में जा
कहीं और बरसता जाता है
समय बदलता जाता है

ना सूरज वही
ना चांँद वही
ना धरती और ब्रम्हांड वही
संग घड़ी की टिक-टिक
कण-कण का रुप आकार बदलता जाता है
समय बदलता जाता है..
                   ....रजनीश (28.05.18)
   

Sunday, April 19, 2015

छोटी सी बात


एक हथेली पर
रखे हुए कई बरसों से
ज्यादा भारी हो जाता है
कभी कभी
दूसरी हथेली पर रखा
एक पल

पैरों से टकराते
अथाह सागर से
बड़ी हो जाती है
कभी कभी
अपने भीतर महासागर लिए
कोने से छलक़ती
...एक बूंद

खुले आकाश में
भरी संभावनाओं सी
अनंत हवा से
कीमती हो जाती है
कभी कभी
जीवन की छोटी सी
...एक सांस

बड़े-बड़े
दरख्तों की छांव से
ज्यादा सुकून देता है
कभी कभी
छोटा सा
...एक आँचल

आसमान छूते बड़े
सुनहरे महलों से
ज्यादा जगह लिए होता है
कभी कभी
मुट्ठी बराबर
...एक दिल

ज़िंदगी की बड़ी
उलझन भरी बातों से
बड़ी हो जाती है
कभी कभी
छोटी सी
...एक बात
....रजनीश (19.04.15)

Monday, March 24, 2014

नया पुराना



होती है नई शुरुआत
हर दिन सुबह के आँगन में
और हर दिन
ढलती शाम के साथ
पहुँच जाता हूँ
उसी पुरानी रात के दरवाजे पर
जो लोरियां सुनाकर
सुला देती है हर बार
कि फिर देख सकूँ
एक नई शुरुआत का सपना

होती है शुरुआत
हर दिन एक नए सफर की
जो गलियों चौराहों से होता
पहुँच जाता है
थका हारा हर शाम
उसी चौखट पर
जो देती है आसरा
कि जुड़ सकें चंद साँसे
और ले लूँ मैं कुछ दम
फिर नए सफर के लिए

होती है शुरुआत
नए चेहरों से नए रिश्तों की हर दिन
जो पेशानीयों पर पड़े बल और
दिलो दिमाग पर छाए जालों में उलझ
कुछ पलों में बासी और उबाऊ हो जाते हैं
और छोड़ जाते हैं जगह
कि देख सकूँ कोई नया चेहरा
बनाऊँ कोई नया रिश्ता

पुराने रस्तों के निशानों /
बीती रातों की यादों /
पुराने चेहरों की तस्वीरों /
सपनों की किताब के पन्नों / को
 बार-बार जीकर यही जाना है अब
कि जहाँ खोजा मैंने
बाहर वहाँ दरअसल
नया कुछ नहीं
सब वही पुराना था

यही जान सका हूँ
इस नए-पुराने की जद्दोजहद में
कि नयापन बाहर कहीं नहीं
वो भीतर है
मेरे देखने में
मेरे दिल की आखों में
मेरे नज़रिये में
कुछ इस तरह देखूँ तो हर पल नया है
पल वो जो आने वाला है
और वो भी जो बीत गया अभी-अभी
.....रजनीश ( 24.03.2014)

Sunday, September 8, 2013

प्यार की चाह में

गर प्यार हो दिल में
हर पल सुहाना होता है
प्यार की चाह में
हर दिल दीवाना होता है

उनके दीदार को
तरसती हैं हरदम आँखें
करीब उनके चले जाने 
हरदम एक बहाना होता है

उनके लब हिलते हैं
तो फूल खिलते है
उनका हर लफ़्ज़
एक तराना होता है

प्यार पर सिर्फ़
गेसूओं की छाँव नहीं
दूर रहकर भी
प्यार निभाना होता है

प्यार देने में है असल
पाने की सिर्फ़ चीज़ नहीं
प्यार खुशियाँ लुटाना
आँसू पी जाना होता है

गर प्यार हो दिल में
हर पल सुहाना होता है
प्यार की चाह में
हर दिल दीवाना होता है 

......Rajneesh (08.09.2013)

Tuesday, May 21, 2013

एक पल की दास्ताँ

एक पल
वैसा ही था
जैसे और भी पल थे
पर वो था बिलकुल काला
बाकी श्वेत धवल थे

उस पल का चेहरा
कितना घिनौना
कितना वीभत्स
कितना डरावना
न सुनी किसी ने
उस पल की आहट
न आया  नज़र
घात लगाए कतार में
ना भाँप सका
कोई आता हुआ संकट

पल छुपा रहा
फिर फट पड़ा
एक भारी पल
धमाके  संग गिरा
शोलों में बिखर
फट गया पल
कई ज़िंदगियों के
ख़त्म हुए पल

उस एक पल ने क्रूर होकर
कुछ यूं कर दिया तमाशा
हो गए सब पल अशांत
बदल गई पलों की भाषा
खो गई सब  मुस्कुराहटें
ख़त्म हो गईं पलों की आशा

क्यूँ आया था
वो पल छुपकर
पलों की खुशनुमा किताब में
काला पन्ना क्यूँ जोड़ गया
क्यूँ किया बदरंग उसने
क्यूँ बिगाड़ी तस्वीर सुंदर
पलों का संगीत मधुर
वो  बेसुरा क्यूँ कर गया

उस विनाशकारी पल का
एक टुकड़ा सिसकता मिला
कहा मैं था और पलों जैसा
मुझे संहार से क्या मिला
मुझे भ्रमित किया किसीने
आँखों पर पट्टी थी बांधी जिसने

किसने चढ़ाया था उस पर
विध्वंस का दुष्ट आवरण
किसने भर दिया उस पल में
आतंक का घातक जहर
अपने जैसे पलों का उसे
किसने बना दिया  दुश्मन

था पल के टुकड़े का जवाब
कैसे भूल सकूँगा जनाब
सौंपते खंजर मुझे वो
तुम ही थे पहने नकाब

हम कहते खुद को इंसान
और हैं इंसानियत के दुश्मन
न हम अपना खून पहचानते
न सुनते इंसानियत का क्रंदन

मिटा दो आतंक के साये
इंसानियत को आबाद कर दो
जी सकें खुल कर सभी
इन पलों को आज़ाद कर दो

.......... रजनीश (21.05.2013) 
21st May : Anti Terrorism Day पर विशेष 
It was on this day in 1991 that former Prime Minister 
Rajiv Gandhi was assassinated. 
The objective behind the observance of Anti-Terrorism Day 
is to wean away the people from terrorism and violence.

Saturday, February 25, 2012

मैं, तुम और हमारा वक़्त

तुम कहते हो जो मुकाम सफ़र में
गुजर जाते हैं वो फिर नहीं आते
पर कयामत बार-बार आती है
और दुनिया हर बार फिर से पैदा होती है
वक़्त का पहिया चलता रहता है
एक गोल घेरे में,
दुनिया की किस्मत में
वक़्त बार बार लौटता है

सुना ये भी है कि जा सकते हैं
वक़्त से आगे
और इसके पीछे भी
इसकी चाल का भी
कोई ठिकाना नहीं
कभी तेज कभी बहुत धीमा
मेरे कुछ पलों में
तुम्हारे बरसों गुजर सकते हैं

गुजरते पलों की रफ़्तार का
कुछ ऐसा ही है अपना भी तजुर्बा
कुछ बरस बीते पलों में
और बीते कुछ पल बरसों में
कभी मिला कोई जो था वक़्त से आगे
कोई गुजरे हुए पल में गड़ा
पर वक़्त नहीं मिला कहीं रुका हुआ,
वो हरदम चलता ही रहा
मैं तो नहीं पकड़ सका
मैं कोशिश कर सका
बस इसके साथ चलने की,

लौटते नहीं देखा मैंने
वक़्त  को कभी
और कभी मिला जो मुड़कर
एक गुजरा हुआ पल
तो वो पल भी वही नहीं था
उसका चेहरा मिला
कुछ बदला बदला सा

वक़्त क्या सच मे गुजर जाता है
हमेशा हमेशा के लिए
क्या जिस पल मेंअभी हम हैं
वो सचमुच गुजर गया है
वो कौन सा पल है
जिसमें मैं हूँ अभी

कई बार चाहा कि
गुजरे वक़्त में जाकर
बदल दूँ अपना आने वाला कल
चाहा कि आने वाले कल
के घर दस्तक दे
मोड़ दूँ अपना आज का रास्ता,
सुना है मैं भाग सकता हूँ
तेज़ वक़्त से और तुम भी
पर मैं तो दौड़ हारता रहा हूँ
आज तलक इस वक़्त से, 
तुम्हारी तुम जानो
ये बस वैसा ही चला
जैसा इसे मंज़ूर था

बदलते वक़्त की छाप
मिलती है जर्रे-जर्रे में
मैं नाप सकता हूँ
दूरियाँ पलों की
जो फैली पड़ी है
खुशियों और तनहाई के बीच
देखा है मैंने भी वक़्त को
सिर्फ गुजरते हुए

जान सका हूँ मैं तो सिर्फ यही कि
मुझे जो करना है वो इसी आज में
मैं तो सिर्फ इसे पूरा जीकर
बीते और आने वाले पलों को
बना सकता हूँ यादगार

इस कायनात के आगे
मैं कुछ नहीं तुम कुछ नहीं
दुनिया बार-बार बनेगी
पर मैं और तुम
क्या दुबारा होंगे यहाँ
क्या हमारा वक़्त लौटेगा

हमारा वक़्त है
सिर्फ ये आज
हमारा वक़्त है वो
जो है अभी और यहीं
जिस पल मैं मुख़ातिब हूँ तुमसे
बस ये पल हमारा है ....
रजनीश (25.02.2012)
टाइम ट्रेवल और सापेक्षता के सिद्धान्त पर 

Sunday, November 20, 2011

दास्ताँ - एक पल की

DSCN4962
कुछ रुका सा कुछ थका सा
कुछ  चुभा सा कुछ फंसा  सा
ये पल लगता है ...

कुछ बुझा सा कुछ ठगा सा
कुछ घिसा सा कुछ पिसा सा
ये पल लगता है  ...

कुछ गिरा सा कुछ फिरा सा
कुछ दबा सा कुछ पिटा सा
ये पल लगता है ...

दिल में है कुछ बात
जो इस पल से हाथ मिला बैठी
हाथ न आएगा अब जरा सा
ये पल लगता है ...

धूप ठहरती नहीं
न ही रुक पाती है रातें
गुजर जाएगा झोंका निरा सा
ये पल लगता है ...
.....रजनीश ( 20.11.2011)

Sunday, October 9, 2011

एक अमर एहसास

1313717101017
दुनिया के शोर-गुल में
गुम जाती है अपनी आवाज़
भीड़ में खो जाता है चेहरा
गली-कूचों में अरमान बिखरते जाते हैं
वक्त की जंजीरों  में उलझते है पाँव
एक-दूजे को धकेलते बढ़ते चले जाते हैं
और हर एक बस रास्ता पूछता है ...
प्यारा था एक बाग
जिसे ख्वाब समझ दूर हो चले
एक फटी हुई चादर थी
जिसे नियति समझ के ओढ़ लिया
कुछ  पल जो मर गए
तो सँजो लिया उन्हें यादों में,
कुछ पलों को मारा
उन्हें सँवारने की ख़्वाहिश में ,
जो पल आने वाले थे
वो बस इंतज़ार में ही निकलते रहे,
भागते हाथों से फिसलते  रहे पल 
ज़िंदगी एक अंधी दौड़ बन के रह गई है ...
एहसास ही नहीं रहा कि
बिना जिए ही मरे हुए
भाग रहे हैं जिसकी तरफ
उस लम्हे का नाम है मौत ...
और जब पलों के चेहरे पर
दिखने लगती है लिखी ये इबारत
तब भूल जाते हैं बच-खुचा जीना भी
जबकि ये एक अकेला एहसास
अगर हो जाए सफ़र  की शुरुआत में,
तो दिल की आवाज़ पहुंचे  कानों तक
दिख जाए पावों को रास्ता
सफ़र बने बेहद खूबसूरत
और प्यार से रोशन हो जाए
खुल जाएँ सारी गाठें 
हर पल सुनहरा हो जाए
भीड़ से अलग दिखे चेहरा
जो दूजों को भी राह दिखाए ....
.....रजनीश ( 09.10.11)
(...स्टीव जॉब्स को समर्पित )

Wednesday, September 14, 2011

हकीकत की हकीकत

 2011-09-08 16.00.04
कुछ गाँठे ऐसी मिलीं हैं डोर में
जो दिखती तो हैं पर हैं ही नहीं

कुछ बंधन ऐसे बने हैं रस्ते में
जो बांधे रहते तो हैं पर हैं ही नहीं

कुछ दीवारें ऐसी उठीं हैं कमरे में
जो खड़ी मिलती तो हैं पर हैं ही  नहीं

कुछ फूल ऐसे खिले हैं आँगन में
जो खूब महकते तो हैं पर हैं ही नहीं

जिये जाते हैं कुछ पलों को बार-बार
जो सांस  लेते  तो हैं पर हैं ही नहीं
...रजनीश (14.09.2011)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....