उनकी हर अदा पे मुस्कुराते रहे हम
चुभता है दिल में ये कहना न आया
मरते मरते आदत मरने की हो गई
करते हैं कोशिश पर जीना न आया
कब हुए वो संजीदा कब मसखरी की
हुए ख़ाक हम पर समझना न आया
हंसने से दिल को राहत पहुँचती है
गुदगुदाया खुद को पर हंसना न आया
दर्द की शक्ल क्या चेहरे पर झलकती है
दर्द हो गए हम पर दिखाना न आया
रियाया पे उनके सितम क्या कहें हम
काट ली पूरी गर्दन पर पसीना न आया
हसरत बहुत थी कुछ गुनगुनाएँ हम भी
जुबां पर कभी पर वो गाना न आया
कहते हैं लिखा सब हाथों की लकीरों मे
फंस गए लकीरों में पर पढ़ना न आया
न रदीफ़ न काफिया न मतला न मकता
ख़त्म हुए पन्ने गज़ल कहना न आया
....रजनीश ( 30.06.2011)