मुझे याद है
वो सुलगती हुई
एक सुनसान दोपहर
जब मैं मुखातिब था उस पेड़ से
जो झुलसा हुआ सूखा-सूखा
खड़ा हुआ था राह किनारे
अपनी ज़िंदगी की डोर थामे
पत्तियों ने भी छोड़ दिया था उसका साथ
वीरानी का घर बस गया था
उसकी डालों पर
और झलकती थी
प्यास हर सिरे से ,
मै पास खड़ा कुछ तलाश रहा था उसमें
एक आईना बन गया था वो पेड़ ,
और आज बारिश हो रही थी
भीगने की तमन्ना
इंतज़ार ही कर रही थी
इन बादलों का
इसी चाहत को साथ लिए
उसी राह से गुजरा
सोचा कुछ गम ही बाँट लूँ
संग उसी पेड़ के ,
पर वो खेल रहा था
नई हरी पत्तियों संग
पत्तों पर गिरती बूंदों में
सुनाई दे रही थी पेड़ की खिलखिलाहट
हवाओं में झूम रहा था
पानी में तरबतर वो पेड़
न थी कोई वीरानी न थी तनहाई
अधूरी प्यास भी नज़र नहीं आई
और एक आईना टूट कर
वहीं बिखरा पड़ा था जमीन पर
वही बारिश मुझ पर भी गिरी
पर भिगा ना सकी थी मुझे
.....रजनीश (16.06.2013)
बारिश से धुले
चमकते पत्तों पर
उतरी
धूप
फिसल कर
छा जाती है
नीचे उग आई
हरी भरी चादर पर
बादल रुक जाते हैं
और हल्की ठंडी
हवा के झोंकों में
कुछ दिनों से
प्यास बुझाती धरती
करती है थोड़ा आराम
ये धूप किसी के
कहने पर आ गई थी
वो सम्हालता अपना
उजड़ा आशियाना
कोई तानता
अपनी छत दुबारा
जो धरती पी न सकी
वो धाराओं में बह गया
और ले गया साथ
कुछ का सब कुछ
ये सब करते हैं
धूप का शुक्रिया अदा
और
कोई धूप को
देख
करता था रुख
बादलों की ओर
बार-बार और कहता था
कि तुम रुक क्यूँ गए
कि अभी तक
नहीं पहुंचा पानी
पोरों में,
और फूटे नहीं हैं
अंकुर अभी बीजों में
फिर धूप से कहता था
तुम क्यूँ आ गईं
वहीं कोई बेखबर
इस धूप से बस यूं ही
चला जाता है और
पानी से भी
नहीं पड़ता उसे कोई फर्क
इन्हें कर लिया है उसने बस में
वही धूप वही बादल
वही पत्ते वही पानी , पर
एक सुबह का एहसास
हर किसी के लिए
अलग-अलग होता है
....रजनीश (29.06.2012)
बरसन लागी बदरिया रूम झूम के ....
( ये बोल हैं एक कजरी के, बस इसके आगे कुछ अपनी पंक्तियाँ जोड़ रहा हूँ )
बरसन लागी बदरिया रूम झूम के ...
सूरज गुम है चंद भी गुम है
नाचती है बिजुरिया झूम झूम के ....
राम भी भीगें श्याम भी भीगें
भीगे सारी नगरिया झूम झूम के
प्यास बुझी और जलन गई रे
चहके कारी कोयलिया झूम झूम के
दुख भी बरसे सुख भी बरसे
भीगती है चदरिया झूम झूम के
हर सावन ये यूं ही बरसे
बीते सारी उमरिया झूम झूम के
....रजनीश (25.06.2011)
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