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Sunday, October 25, 2015

नज़र

ना बदली वो राहें  पता मंजिल का भी वही
फिर क्यूँ भटका हुआ इन्सान नज़र आता है

कोई नजरों में रहके भी  नजरों से दूर रहे
ना होकर भी नजरों में कोई पास नजर आता है

दिल का आईना भी कितना ज़ालिम होता है
जब भी देखूं अपना चेहरा शैतान नज़र आता है

कोहरे की परत भी क्या क्या गुल खिलाती है
उगता गर्म सूरज भी चाँद नजर आता है

बड़ी उम्मीद थी जिससे तलाशा जिसे हर कहीं
खड़ा दुश्मन की तरह वो दोस्त नज़र आता है

है ये किस्मत या फितरत या ईन्सानी तादाद का असर
वो कीड़ों की तरह मरता कौड़ियों में बिकता नज़र आता है

तू मुझमें है मै तुझमें हूँ जो मुझमें वो ही तुझमें
क्यूँ चेहरे में तेरे फिर कोई और नज़र आता है
                              ..........रजनीश (25.10.2015)

Sunday, August 4, 2013

दोस्त है वो ...


वो कुछ कहता नहीं,
और मैं सुन लेता हूँ,
क्योंकि उसकी बातें
मेरे पास ही रखी हैं,
उसकी आवाज़ में झाँककर
कई बार अपने चेहरे पर चढ़ी धूल
साफ की है मैंने ,
अक्सर उसकी वो आवाज़,
वहीं पर सामने होती है
जहां तनहा खड़ा ,
मैं खोजता रहता हूँ खुद को,
उस खनक में ,
रोशनी  होती है एक
जो करती है मदद,
और मेरा हाथ पकड़
मुझे ले आती है मेरे पास,
उसकी आवाज़ फिर  सहेजकर
रख लेता हूँ....
दोस्त है वो मेरा .....
.............रजनीश (10.02.2011)
reposted on friendship day 

Monday, May 28, 2012

चेहरों का शहर














( अपनी एक पुरानी कविता पुनः पोस्ट कर रहा हूँ ....)

एक चेहरा
जो सिर्फ एक चेहरा है मेरे लिए
दिख जाता है अक्सर
जब भी पहुंचता हूँ चौराहे पर,
एक चेहरा हरदम सामने रहता है
चाहे कहीं से भी गुज़रूँ

कोई चेहरा होता है अजनबी पर
लगता जाना पहचाना,
कभी चलते चलते मिल जाता है
कुछ नई परतों के साथ
कोई चेहरा जो दोस्त था,
कभी ऐसा  चेहरा मिल जाता है
पुराना जो दोस्त न बन सका था

कोई चेहरा ऐसा जिसे मैं पसंद नहीं
कोई ऐसा जो मुझे न भाया कभी
कुछ चेहरे कभी ना बदलते और
हैं हरदम बदलते हुए चेहरे भी
चेहरों पर चढ़े चेहरे मुखौटे जैसे
चेहरों से उतरते चेहरे नकली रंगों जैसे

हर चेहरे में एक आईना है
हर चेहरा अनगिनत प्रतिबिंब है
अगर कोई और देखे तो
वही चेहरा दिखता है कुछ और
हर गली चेहरों की नदियां
हर चौराहा चेहरों का समंदर है

अंदर बनते बिगड़ते खयालात
जागते सोते जज़्बात
सभी जुड़े चेहरों से
सूनी वादियों में भी दिख जाता
कोई चेहरा
बादलों , समुंदर की लहरों ,ओस की बूंद
और आँखों से टपकते मोती में भी चेहरे

एक चेहरा दिखता आँखें बंद करने पर
( एक चेहरा नहीं दिखता आंखे खुली होने पर भी !)

मैं ही हूँ इन चेहरों मैं
तुम भी हो इन चेहरों मैं
मैं एक बूंद नहीं चेहरों की नदी हूँ
नदी ही क्यूँ समुंदर हूँ
और तुम भी

बिना चेहरों के न भूत है न भविष्य
न हर्ष है न विषाद
न कुछ सुंदर न वीभत्स
और वर्तमान भी  शून्य है
अगर चेहरे नहीं तो
  न मैं हूँ न तुम
...रजनीश (24.05.2011)

Sunday, November 6, 2011

फ़ेस बुक

DSCN4800
चेहरों की किताब
हर चेहरे में अपना चेहरा
अपने चेहरे में हर चेहरा
मिलता हूँ अपनों से
किताब के पन्नों में
जो उभरते हैं एक स्क्रीन पर
जो कभी हुआ करते थे रु-ब-रु
थाम हाथ जिन्हें महसूस कर सकता था
अब छू तो नहीं सकता
पर देख सकता हूँ
और कभी-कभी तो पहले से भी ज्यादा
चेहरों की ये किताब हरदम साथ रहती है
पन्नों पर बहुत  से ऐसे भी चेहरे आए
जो बस एक धुंधली सी छाया थे
अब यादों ने फिर से पानी दिया
और चेहरों के अंदर से
फिर निकल आया कोई अपना
जुड़ जाती हैं टूटी कड़ियाँ
फिर हाथ आ जाता है वो छूटा सिरा
वक़्त लौट आता है
हम जो ढूंढते हैं वो भीतर ही होता है
किताब के चेहरे दरअसल
रहते हैं दिल में
फिर कोई मुखातिब हो या
दूर बैठा कहीं से
बांटता हो अपनी यादें
अपनी तस्वीरें  अपना मन
और सुनता हो  बातें करता हो
देखता हो और जुड़ा रहता हो
फिर एहसास नज़दीकियों के
मोहताज नहीं रह जाते
किताब एक बैठक बन जाती है
फासला कहाँ रह जाता है ?
अगर किताब के चेहरे असली हैं
तो आभासी कुछ भी नहीं 
साथ के लिए क्या ज़रूरी कि हाथ में हो हाथ
कोई बहुत दूर का  भी पास चला आता है
गम नहीं कि बहुत दूर मेरे घर  से तुम
क्यूंकि  हिस्सा दिल का कभी दूर नहीं जाता है ...
....रजनीश ( 06.11.2011)

Tuesday, September 6, 2011

तुम्हारा गुरु

2011-08-19 06.57.39
कोख में रख तुम्हें कष्ट सह  है जनमती
दूध-लोरी-दुलार से तुम्हारा पालन जो करती
सींच कर अपना खून भूलकर अपना सबकुछ
जो बड़ा तुम्हें करती वो तुम्हारी गुरु है

अंगुली के सहारे जो है चलना सिखाता
गोद में बिठा अपनी तुम्हें कहानी सुनाता
हिस्से को अपने सही-गलत का समझा अंतर
जो  पैरों पे खड़ा करता वो तुम्हारा गुरु है

स्लेट पर चाक रख जो पहला अक्षर लिखाता
किताबों की दुनिया से तुम्हारा परिचय कराता
धर्म-अर्थ-कला-विज्ञान में जो पारंगत तुम्हें कर 
जीवन चलाना सिखाता वो तुम्हारा गुरु है

है तुम्हारे सुख-दुख में जो सदा साथ रहता
दोस्त या हमसफर बन के दिल में जो बसता
संबल बन तुम्हारा चिंता तुम्हारी हर कर जो
हर रस्ता आसां करता वो तुम्हारा गुरु है

दिल का एक टुकड़ा अंश है जो तुम्हारा 
तुम्हारे सपनों को सच करने आया जो दुलारा
नई पौध का प्रतिनिधि नई सोच तुम्हें देकर
नए चिराग जो दिखाता वो तुम्हारा गुरु है

जो है भीतर तुम्हारे एक दीपक सा जलता
अंधेरी डगर तुम्हारी हरदम रोशन जो करता
कोलाहल में अंदर की आवाज   बनकर तुम्हें
तूफानों में खड़ा रखता वो तुम्हारा गुरु है

(हर-क्षण हर-कण सजीव या निर्जीव
प्रकृति का हर अंश ही तुम्हारा गुरु है )
...रजनीश (06.09.2011)

Saturday, June 4, 2011

मेरा पता

DSCN3718
सुबह-सुबह
मॉर्निंग वॉक पर
कभी दिख जाती है  एक शाम
और मैं मिलता हूँ
खोया हुआ एक भीड़ में
और अक्सर दिखते हैं
रास्ते में पड़े
ऑफिस के कागजात

ऑफिस के लिए निकलते हुए
घर से, कई बार ये पाया है
कि ऑफिस तभी पहुँच गया था
जब घर पर कर रहा था
प्रार्थना ऊपर वाले से

टेबल पर काम करते-करते
कागज पर उभरते अक्षरों से
झाँकते चेहरे देखता रहता हूँ
जो अक्सर धीरे से निकल
फाइलों में घुस जाते हैं
लंच की रोटी में
दिख जाती है किसी की भूख
सब्जी के मसालों में
मिला होता है फिल्मी रोमांच
एक  काम की रूपरेखा बनाते बनाते
घर के चावल-दाल का खयाल ..
कुछ घर के सपने बुन लेता हूँ
नौ इंच की कंप्यूटर स्क्रीन पर
दोस्तों से हाथ मिलाता हुआ
ऑफिस में नहीं रह जाता हूँ मैं
सामने दरवाजे पर निगाहें डालता हूँ
तो बाहर दिखता है घर का आँगन
फिर टेबल पर उछलती  ढेरों ज़िंदगियों
में घुसकर वापस अपनी
ज़िंदगी में आ जाता हूँ रोज़ ..

घर लौटने पर दिखती है
मुंह चिढाती ऑफिस की आलमारी
जिसकी बाहों में  होती है मुझसे छूटी
घर के कामों की फेहरिस्त
फिर दिल में सुकून होता है
घर में अपनों के बीच होने का
बिस्तर पर लेटे-लेटे
ऊपर चलते पंखे में घुस जाता हूँ
और गिरता हूँ ऑफिस की टेबल पर
ऊपर लगे पंखे से ..
फिर वहीं पड़े पड़े नींद आ जाती है ...
है दिनचर्या नियत
पर नहीं तय कर पाया आज तक
कि कब घर में होता हूँ
और कब ऑफिस में ...

जहां वो मुझसे मिलता है मैं वहाँ नहीं होता
जो मुझसे रूबरू होता है , वो वहाँ नहीं होता
मैं जहां होता हूँ , मैं वहाँ नहीं होता
मैं वहीं मिलता हूँ, मैं जहां नहीं होता ...
...रजनीश (04.06.2011)

Wednesday, May 25, 2011

चेहरे

DSCN1811
एक चेहरा
जो सिर्फ एक चेहरा है मेरे लिए 
दिख जाता है अक्सर
जब भी पहुंचता हूँ चौराहे पर,
एक चेहरा हरदम सामने रहता है
चाहे कहीं से भी गुज़रूँ

कोई चेहरा होता है अजनबी पर
लगता जाना पहचाना,
कभी चलते चलते मिल जाता है
कुछ नई परतों के साथ
कोई चेहरा जो दोस्त था,
कभी ऐसा  चेहरा मिल जाता है 
पुराना जो दोस्त न बन सका था

कोई चेहरा ऐसा जिसे मैं पसंद नहीं
कोई ऐसा जो मुझे न भाया कभी
कुछ चेहरे कभी ना बदलते और
हैं हरदम बदलते हुए चेहरे भी
चेहरों पर चढ़े चेहरे मुखौटे जैसे
चेहरों से उतरते चेहरे नकली रंगों जैसे

हर चेहरे में एक आईना है
हर चेहरा अनगिनत प्रतिबिंब है
अगर कोई और देखे तो
वही चेहरा दिखता है कुछ और
हर गली चेहरों की नदियां
हर चौराहा चेहरों का समंदर है

अंदर बनते बिगड़ते खयालात
जागते सोते जज़्बात
सभी जुड़े चेहरों से
सूनी वादियों में भी दिख जाता
कोई चेहरा
बादलों , समुंदर की लहरों ,ओस की बूंद
और आँखों से टपकते मोती में भी चेहरे

एक चेहरा दिखता आँखें बंद करने पर
( एक चेहरा नहीं दिखता आंखे खुली होने पर भी !)

मैं ही हूँ इन चेहरों मैं
तुम भी हो इन चेहरों मैं
मैं एक बूंद नहीं चेहरों की नदी हूँ
नदी ही क्यूँ समुंदर हूँ
और तुम भी

बिना चेहरों के न भूत है न भविष्य
न हर्ष है न विषाद
न कुछ सुंदर न वीभत्स 
और वर्तमान भी  शून्य है
अगर चेहरे नहीं तो
  न मैं हूँ न तुम
...रजनीश (24.05.2011)

Friday, February 11, 2011

दोस्त

DSCN1420
वो कुछ कहता नहीं,
और मैं सुन लेता हूँ,
क्योंकि उसकी बातें
मेरे पास ही रखी हैं,
उसकी आवाज़ में झाँककर
कई बार अपने चेहरे पर चढ़ी धूल
साफ की है मैंने ,
अक्सर उसकी वो आवाज़,
वहीं पर सामने होती है
जहां तनहा खड़ा ,
मैं खोजता रहता हूँ खुद को,
उस खनक में ,
रोशनी  होती है एक
जो करती है मदद,
और मेरा हाथ पकड़
मुझे ले आती है मेरे पास,
उसकी आवाज़ फिर  सहेजकर 
रख लेता हूँ....
दोस्त है वो मेरा .....
.............रजनीश (10.02.2011)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....