एक नज़्म लिखी थी
उस पन्ने पर
जो दिल में
कोरा पड़ा था
पर कुछ शब्द
नहीं थे पास मेरे
कुछ लाइनें अहसासों में
अटक गईं थीं
लिखते लिखते ही
पन्ना गुम
गया था रद्दी में
कलम भी खो गई थी
हिसाब-किताब में
पलाश फिर दिखा
खिड़की से
रद्दी से फिर
हाथ आ गया
वही पन्ना
उस नज़्म के दिन
लौट आए हैं ...
रजनीश (13.02.2012)

सोचता हूँ
तुम्हें लिख दूँ
एक कविता में,
पर पहली-पहली कुछ लाइनें
मुझसे कोरी ही रह जाएंगी,
और कुछ आखिरी
लाइनें मैं जानता नहीं
पर इतना जानता हूँ
वो नहीं समाएंगी इस पन्ने में,
और बीच में बस
पहली और आखिरी
लाइनों की दूरी बयां होगी,
अगर लिखूँ तो
बहुत सी लाइनें तो कटी हुई मिलेंगी तुम्हें
और जो शब्द बच गए
पता नहीं
कब तक रुकेंगे
लाइनों पर,
बहुत से शब्द तो मेरे पास नहीं
तुमने ही रखे हैं,
और पन्ना भी
बस एक ही है मेरे पास...
...रजनीश (19.04.11)
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