मैंने देखी हैं ,एक जोड़ा आँखें ,
उम्र में छोटी, नादां, चुलबुली,
कौतूहल से भरी ,
पुराने चीथड़ों की गुड़िया
खरोंच लगे कंचों
पत्थर के कुछ टुकड़ों
और मिट्टी के खिलौनों में बसी
कुछ तलाशती आँखें
भोली सी, प्यारी सी ,
दूर खड़ी , मुंह फाड़े , अवाक सब देखतीं हैं
... कितनी हसीन दुनिया
इन आँखों मे बनते कुछ आँसू चाहत के
निकलते नहीं बाहर
और आँखें ही अपना लेती हैं उन्हें ..
और मुड़कर घुस जाती हैं
फिर उन चीथड़ों पत्थरों और काँच के टुकड़ों में
........रजनीश