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Tuesday, April 26, 2011

गुलमोहर और पलाश

DSCN4178
रोज गुजरता हूँ  इधर से
वही रास्ता  हर दिन जैसे
एक चक्कर में घूमती जिंदगी,
और मिलता है वही पलाश 
जो इतराता था कल तक
अपने मदमस्त फूलों पर,
अब  मायूस खड़ा रहता है
खोया सा पेड़ों के झुंड में,
कभी मैंने भी की थी कोशिश
कि उसका कुछ रंग चढ़े मुझ पर ,
आज वो खुद दिखता बदरंग , बैचेन
जैसे खो गई  हो उसकी पहचान,
दिन तो फिरे हैं अभी
उस घमंडी गुलमोहर के,
जो चार कदम दूर ही मिलता है,
पलाश को मुँह चिढ़ाता
पुराना बदला लेता,
चटख लाल हुआ जा रहा है
जैसे  ढेरों सूरज उगे हों,
इसी रास्ते से गुजरती है एक गाड़ी
पलाश पढ़ता है गाड़ी पर लिखी इबारत
'दूसरे की दौलत देखकर हैरान न हो
ऊपर वाला तुझे भी देगा परेशान न हो',
मैंने दोनों से ही कहा, पगलों!
व्यर्थ हो जलते , व्यर्थ ही कुढ़ते
क्यों भूलते मौसम एक दिन
पतझड़ का भी  आता है
पर गम न करो  वो  झोली में
फिर से एक बसंत दे जाता है ...
...रजनीश( 26.04.11)

Tuesday, February 22, 2011

बे-मौसम बरसात

DSCN1762
दो-तीन दिनों से कर रहे थे इशारा , और कल गरजे सुबह-सुबह
जैसे मुनादी कर रहे हों , कि हम आ गए हैं और बस शुरू हो गए बरसना ...
कल दिन भर बादल कुछ ऐसे बरस रहे थे , जैसे कुछ हिसाब रहा गया था
जिसे पूरा करना था , कल का दिन फ़रवरी का नहीं था ...

[1]
एक बादल रहता है ,
दिल के कोने में ....
कल वो फिर गुजरे दिल के रस्ते से,
और जाते-जाते
उस बादल को बरसा गए ।
सुखाया था इक दर्द ,
रोज़मर्रे की धूप में,
इस बेमौसम बरसात ने
उसे फिर से गीला कर दिया ....

[2]
जहां कभी लिखी थी मैंने , कुछ पत्तों पर  कहानियाँ
वो पूरी बगिया ही मुझे झाड़-झंखाड़ सी लगी
तब झाड़ा था मैंने उन सूखे दर्दीले पत्तों को ,
कुछ आशाएँ डाली थी मैंने क्यारियों में,
और कई दिनों  'खुद' से सींचा था... 
अभी आए ही थे कुछ फूल उम्मीदों के,
नई उमंगों के बस बौर फूटे थे,
तभी क़िस्मत के बादलों ने
ढंका ये बासंती मंज़र ,
बेवक्त हुई  बारिश से ,
पूरा सपना ही बह गया ...

[3]
मैं दुखी हूँ,
क्यूंकि बेवक्त बरस गया एक बादल ,
मैं  रोता हूँ उन चंद बासंती लम्हों के लिए
जो इस बरसात में भीग , गल गए,
बेवजह का रोना है मेरा  ,
क्यूंकि वो लम्हे  बस खो गए हैं रस्ते में ,
फिर  मिल जाएँगे अगले मोड़ पर ,
न भी मिले,  तो  और भी कई ग़म हैं,  वजहें हैं  ...
पर वो क्या करे ?
जिसके खेत में बादल बरस गया बेमौसम,
जहां   बरसात ने बहाया और सड़ाया 
बीजों को, जिन्हें बोया था पसीने ने...
वो क्या करे ?
जिसकी  साल भर की कमाई,
बोरों में भरे-भरे , बरसात को प्यारी हो गई
उसका बसंत तो बहुत-बहुत दूर चला गया होगा ....
हो सकता है हमेशा के लिए ….
......रजनीश (21.02.2011)

Saturday, February 12, 2011

मिल गया बसंत...

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कल पढ़ा था अखबार में ,
बसंत आ गया ,
कुछ बासन्ती पंक्तियों के साथ ,
छपी थी एक तस्वीर फूलों  की,
पर खुशबू नहीं मिली उसमें ...
मैंने कोशिश की एक फूल
खींच कर निकालने की,
पर वो पन्ने से बाहर नहीं आया ....
अपने मन को टटोला ,
वहाँ नहीं पहुंचा था बसंत...

बाहर निकला मैं,
रस्ते-रस्ते, गलियों-गलियों
दीवारों ,मकानों, चौराहों सब जगह देखा ,
पर कंक्रीट के जंगल में
बसंत कहीं नहीं मिला,
वो चिड़िया भी नहीं मिली छत की मुंडेर पर,
जो बसंत के पास ही रहती थी,
पता चला उसने वो जगह दे दी है ,
लोहे की एक मीनार को,
तलाशते-तलाशते कई जगह
निशान मिले, उसके कदमों की छाप मिली,
पर बसंत नहीं मिला...
वो तो यहाँ से कब का चला गया था,
और बस यादें अब सिमटी थी उसकी,
एक 'वीभत्स' मुरझाए से कागज के अखबार में ,
जो खुद सबूत  था एक हत्या का,

शहर के छोर पर जो दाई रहती है ,
उसने कहा कि सामने उस गाँव में जाओ,
शायद वहाँ  होगा ,
पर 'गाँव' बीच रस्ते में ही मिल गया ,
वो तो शहर की तरफ भाग रहा था,
पीछे जो जमीन छोड़ी थी उसने
उसके सीने मेँ उगी गहरी धारियाँ
देखकर मैं लौट गया थका हारा,

पर  इच्छा बड़ी तीव्र थी ,
आखिर ढूंढ ही निकाला उसे ,
गाँव से लगी पहाड़ी के पार ,
देख ही लिया उसका संसार
मिट्टी की खुशबू,  झरने की कलकल,
कू-कू की गूंज , खिलती कलियों की अंगड़ाई,
हौले से मटकती बयार के संग झूलती  बौर ,
सुनहली किरणों मेँ चमकता एक-एक रंग ,
वो कर रहा था नृत्य...

प्रेम और जीवन की अभिव्यक्ति हर पल मेँ थी,
हर एक  पत्ते  , हर एक कण मे था वो वहाँ ,
वैसा का वैसा ...
देखना चाहो तो तुम भी आ सकते हो,
पर दबे पाँव आना यहाँ,
अपनी छाप न पड़ने देना मिट्टी मेँ ,
रुकना नहीं यहाँ ,
इसे बस साँसों मेँ भरकर तुरंत
लौट जाना दबे पाँव ,
नहीं तो बसंत भाग जाएगा , समझे ?
..........रजनीश (12.02.2011)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....