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Sunday, October 25, 2015

नज़र

ना बदली वो राहें  पता मंजिल का भी वही
फिर क्यूँ भटका हुआ इन्सान नज़र आता है

कोई नजरों में रहके भी  नजरों से दूर रहे
ना होकर भी नजरों में कोई पास नजर आता है

दिल का आईना भी कितना ज़ालिम होता है
जब भी देखूं अपना चेहरा शैतान नज़र आता है

कोहरे की परत भी क्या क्या गुल खिलाती है
उगता गर्म सूरज भी चाँद नजर आता है

बड़ी उम्मीद थी जिससे तलाशा जिसे हर कहीं
खड़ा दुश्मन की तरह वो दोस्त नज़र आता है

है ये किस्मत या फितरत या ईन्सानी तादाद का असर
वो कीड़ों की तरह मरता कौड़ियों में बिकता नज़र आता है

तू मुझमें है मै तुझमें हूँ जो मुझमें वो ही तुझमें
क्यूँ चेहरे में तेरे फिर कोई और नज़र आता है
                              ..........रजनीश (25.10.2015)

Wednesday, February 29, 2012

सूरत असली-नकली



दूर से मिलते आकर और चले जाते हैं दूर
दूर से ही दूर क्यों सीधे निकल नहीं जाते

दुहाई रिश्तों की और बयां हमनिवाला दिनों का 
जाया करते हैं वक़्त क्यों मुद्दे पर नहीं आते 

सारी रात चले महफिल और उनकी जाने की रट 
पर जमे रहते हैं क्यों उठकर चले नहीं जाते

वादा मदद का और साथ मुश्किलों का बखान
तकल्लुफ छोडकर क्यों सीधे पैसों पर नहीं आते

मुंह में राम राम और बगल में रखें रामपुरिया
पीठ पर ही वार क्यों  सीने में घोप नहीं जाते

जो मिला न उनको और वही मिल गया हमको
फ़ीका मुस्कुराते हैं क्यों सीधे जल नहीं जाते

आँखों से टपके आँसू और कलेजे में पड़ी है ठंडक
छोड़ गमगुसारी क्यों जाकर खुशियाँ नहीं मनाते

छुपता नहीं छुपाने से और चेहरे से बयां हो जाता है
मुखौटे बदलते हैं क्यों ये बात समझ नहीं पाते

.....रजनीश (29.02.12)

Tuesday, December 27, 2011

बदलता हुआ वक़्त


महीने दर महीने 
बदलते कैलेंडर के पन्ने 
पर दिल के कैलेंडर में 
 तारीख़ नहीं बदलती  

भागती रहती है घड़ी 
रोज देता हूँ चाबी 
पर एक ठहरे पल की 
किस्मत नहीं बदलती   

बदल गए घर 
बदल गया शहर 
बदल गए रास्ते 
बदला सफर 

बदली है शख़्सियत
ख़याल रखता हूँ वक़्त का 
बदला सब , पर वक़्त की 
तबीयत नहीं बदलती 

कुछ बदलता नहीं 
बदलते वक्त के साथ 
सूरज फिर आता है 
काली रात के बाद 

उसके दर पर गए 
लाख सजदे किए 
बदला है चोला पर 
फ़ितरत नहीं बदलती

क़यामत से क़यामत तक 
यूं ही चलती है दुनिया 
चेहरे बदलते हैं पर 
नियति नहीं बदलती ...
रजनीश (27.12.2011)
एक और साल ख़त्म होने को है पर क्या बदला , 
सब कुछ तो वही है , बस एक और परत चढ़ गई वक़्त की ....

Sunday, October 9, 2011

एक अमर एहसास

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दुनिया के शोर-गुल में
गुम जाती है अपनी आवाज़
भीड़ में खो जाता है चेहरा
गली-कूचों में अरमान बिखरते जाते हैं
वक्त की जंजीरों  में उलझते है पाँव
एक-दूजे को धकेलते बढ़ते चले जाते हैं
और हर एक बस रास्ता पूछता है ...
प्यारा था एक बाग
जिसे ख्वाब समझ दूर हो चले
एक फटी हुई चादर थी
जिसे नियति समझ के ओढ़ लिया
कुछ  पल जो मर गए
तो सँजो लिया उन्हें यादों में,
कुछ पलों को मारा
उन्हें सँवारने की ख़्वाहिश में ,
जो पल आने वाले थे
वो बस इंतज़ार में ही निकलते रहे,
भागते हाथों से फिसलते  रहे पल 
ज़िंदगी एक अंधी दौड़ बन के रह गई है ...
एहसास ही नहीं रहा कि
बिना जिए ही मरे हुए
भाग रहे हैं जिसकी तरफ
उस लम्हे का नाम है मौत ...
और जब पलों के चेहरे पर
दिखने लगती है लिखी ये इबारत
तब भूल जाते हैं बच-खुचा जीना भी
जबकि ये एक अकेला एहसास
अगर हो जाए सफ़र  की शुरुआत में,
तो दिल की आवाज़ पहुंचे  कानों तक
दिख जाए पावों को रास्ता
सफ़र बने बेहद खूबसूरत
और प्यार से रोशन हो जाए
खुल जाएँ सारी गाठें 
हर पल सुनहरा हो जाए
भीड़ से अलग दिखे चेहरा
जो दूजों को भी राह दिखाए ....
.....रजनीश ( 09.10.11)
(...स्टीव जॉब्स को समर्पित )

Wednesday, May 25, 2011

चेहरे

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एक चेहरा
जो सिर्फ एक चेहरा है मेरे लिए 
दिख जाता है अक्सर
जब भी पहुंचता हूँ चौराहे पर,
एक चेहरा हरदम सामने रहता है
चाहे कहीं से भी गुज़रूँ

कोई चेहरा होता है अजनबी पर
लगता जाना पहचाना,
कभी चलते चलते मिल जाता है
कुछ नई परतों के साथ
कोई चेहरा जो दोस्त था,
कभी ऐसा  चेहरा मिल जाता है 
पुराना जो दोस्त न बन सका था

कोई चेहरा ऐसा जिसे मैं पसंद नहीं
कोई ऐसा जो मुझे न भाया कभी
कुछ चेहरे कभी ना बदलते और
हैं हरदम बदलते हुए चेहरे भी
चेहरों पर चढ़े चेहरे मुखौटे जैसे
चेहरों से उतरते चेहरे नकली रंगों जैसे

हर चेहरे में एक आईना है
हर चेहरा अनगिनत प्रतिबिंब है
अगर कोई और देखे तो
वही चेहरा दिखता है कुछ और
हर गली चेहरों की नदियां
हर चौराहा चेहरों का समंदर है

अंदर बनते बिगड़ते खयालात
जागते सोते जज़्बात
सभी जुड़े चेहरों से
सूनी वादियों में भी दिख जाता
कोई चेहरा
बादलों , समुंदर की लहरों ,ओस की बूंद
और आँखों से टपकते मोती में भी चेहरे

एक चेहरा दिखता आँखें बंद करने पर
( एक चेहरा नहीं दिखता आंखे खुली होने पर भी !)

मैं ही हूँ इन चेहरों मैं
तुम भी हो इन चेहरों मैं
मैं एक बूंद नहीं चेहरों की नदी हूँ
नदी ही क्यूँ समुंदर हूँ
और तुम भी

बिना चेहरों के न भूत है न भविष्य
न हर्ष है न विषाद
न कुछ सुंदर न वीभत्स 
और वर्तमान भी  शून्य है
अगर चेहरे नहीं तो
  न मैं हूँ न तुम
...रजनीश (24.05.2011)

Tuesday, April 5, 2011

एक चित्र

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तुम जब भी मिलते हो मुझसे
तब तुमसे मुखातिब मैं नहीं
बल्कि होती है एक  तस्वीर  ,
जानता हूँ , मैंने अपने एहसासों में देखा है,
तुमने जताया भी है हरदम कि-
वो तस्वीर है मेरी
तुम्हारे हाथों में,
पर मैंने नहीं दी तुम्हें,
मेरा  आटोग्राफ भी नहीं,
और तो और, मै   दिखता ही नहीं इसमें,
इसे तुमने खुद ही बनाया है ,
ठीक है मैं तुम्हारे सामने ही था
जब तुम मेरा अक्स उतार रहे थे
अपने रंगों और अपने ब्रश से,
कोई अंधेरा तो नहीं था वहाँ
ना ही कोई नकाब ओढ़े था मैं उस वक्त,
मैं बहुत करीब था ,
तुम रेखाएँ खींचते रहे और रंग भरते रहे ,
पर शायद मैं साफ़-साफ़ दिखा नहीं,
तुम चुपचाप बनाते चले गए, 
कम से कम बताना तो था
कि   उस वक्त दबे पाँव
जो उभर रहा था   
वो मेरा ही चेहरा था,
मैं कर सकता था  तुम्हारी कुछ मदद
और तब मैं ही मिला होता
तुम्हें इस तस्वीर में ...
और जब मैं खुद सामने हूँ अभी तुम्हारे
हमारे बीच से तुम ये तस्वीर  हटा क्यूँ नहीं लेते ...
...रजनीश ( 05.04.11)

Friday, February 11, 2011

दोस्त

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वो कुछ कहता नहीं,
और मैं सुन लेता हूँ,
क्योंकि उसकी बातें
मेरे पास ही रखी हैं,
उसकी आवाज़ में झाँककर
कई बार अपने चेहरे पर चढ़ी धूल
साफ की है मैंने ,
अक्सर उसकी वो आवाज़,
वहीं पर सामने होती है
जहां तनहा खड़ा ,
मैं खोजता रहता हूँ खुद को,
उस खनक में ,
रोशनी  होती है एक
जो करती है मदद,
और मेरा हाथ पकड़
मुझे ले आती है मेरे पास,
उसकी आवाज़ फिर  सहेजकर 
रख लेता हूँ....
दोस्त है वो मेरा .....
.............रजनीश (10.02.2011)

Saturday, January 22, 2011

व्याकरण और शब्दकोश

shabd
चेहरे पे लिखी इबारत,
पढ़ना हो तो,
सिखाए गए व्याकरण से रिश्ता
तोड़ना पड़ता है,
भाषा की स्कूली किताब ,
वापस रखनी होती है शेल्फ मेँ ...
क्योंकि यहाँ शब्द एक लाइन में नहीं होते ,
पहले अल्प विराम और
फिर उसके बाद हो सकता है-
कई जाने-अनजाने चिन्हों के साथ 
कोई टूटे -फूटे शब्दों का कारवां,

चेहरे पर लटकती लिखावट में
भूतकाल  आ सकता है वर्तमान मेँ ,
प्रश्न हो जाता है उत्तर
और उत्तर मेँ मिलते हैं प्रश्न ,
चेहरे पर उभरे- इस मौजूद पल मेँ-
मुस्कुराते हुए शब्दों मेँ,
भविष्यकाल की किसी आशा
से   मुलाकात हो सकती है,
जो मैं है ,वो तू हो सकता है ,
और तू है , वो हो सकता है मैं...

चेहरे पर लिखी इबारत समझने मेँ,
खरीदे गए और अपने बनाए शब्दकोश  भी काम नहीं आते  ,
क्योंकि , खुशी के घर मेँ आपको
दुख का बसेरा मिल सकता है चेहरे पर,
ढाई आखर का अभिमान हो सकता है,
और घृणा मेँ लालसा.....
मेरा-तेरा , अच्छा-बुरा हो सकते हैं समानार्थी...
कोई सीमा नहीं, कोई बंधन नहीं ...
क्योंकि यहाँ कोई आत्मा नहीं रहती शब्दों में ,
और वो बदल-बदल मुखौटे  फिरते हैं चेहरों पर,

फिर जो चेहरे पर लिखा होता है ,
वो कभी-कभी छूने पर गुम हो जाता है,
कोई शब्द कभी  छुप जाता है,
और आँखेँ गड़ाकर देखो तो
कभी कोई अपना रूप ही बदल लेता है ,
ज्यादा करीब आओ
तो सारे के सारे  गुम हो सकते हैं
क्योंकि चेहरे पर उनके घर नहीं होते ,
वो भीतर चले जाते हैं ...
बड़ा विचित्र है उनका ठिकाना ,
जहां बैठा कोई पहनाता रहता है इन्हें मुखौटे ,
वो रहते हैं उस तिलस्म मेँ ,
जहां पर धड़कता है दिल,
वहाँ से बस कुछ बित्ते की दूरी पर ,
उनके कुछ कमरे ऊपर भी हैं 'भेजे' में  ,
कहाँ रहें , कहाँ से चलें ...
इसी ऊहापोह में शब्द भी थक जाते हैं कई बार,

ये शब्द नौकरी करते मिलते हैं
एक "अव्यक्त" की ,
जिसे  छुपाने या उभारने मेँ लगे होते हैं ये शब्द ,
जो चलते-चलते जुबां तक पहुँच पाते हैं
उन्हें सुन भी सकते हैं आप ,
बाकी इधर-उधर,
मसलन आंख वगैरह पर खड़े मिलते हैं  

बोलते चेहरे की बात
समझने /और झाँकते, फिरते शब्दों को पहचानने  -
उनके घर- उस तिलस्म तक जाना
होता है , और यारी करनी पड़ती है उनसे ,
खुद को बाहर फेंक कर वहीं रहना पड़ता है ,
वही चेहरा बन जाना होता है,
और तब शब्द , 
व्याकरण की असली किताब और असली डिक्शनरी
खुद ही लाकर रख देते हैं
आपके हाथों मेँ ....
....रजनीश (22.01.2011)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....