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Sunday, June 16, 2013

नई बारिश



मुझे याद है
वो सुलगती हुई
एक सुनसान दोपहर
जब मैं मुखातिब था उस पेड़ से
जो झुलसा हुआ सूखा-सूखा
खड़ा हुआ था राह किनारे
अपनी ज़िंदगी की डोर थामे
पत्तियों ने भी छोड़ दिया था उसका साथ
वीरानी का घर बस गया था
उसकी डालों  पर
और झलकती थी
प्यास हर सिरे से ,
मै पास खड़ा कुछ तलाश रहा था उसमें
एक आईना बन गया था वो पेड़ ,

और आज बारिश हो रही थी
भीगने की तमन्ना
इंतज़ार ही कर रही थी
इन बादलों का
इसी चाहत को साथ लिए
उसी राह से गुजरा
सोचा कुछ  गम ही बाँट लूँ
संग उसी पेड़ के ,
पर वो खेल रहा था
नई हरी पत्तियों संग
पत्तों पर गिरती बूंदों में
सुनाई दे रही थी पेड़ की खिलखिलाहट
हवाओं में झूम रहा था
पानी में तरबतर वो पेड़
न थी कोई वीरानी न थी तनहाई
अधूरी प्यास भी नज़र नहीं आई
और एक आईना टूट कर
वहीं  बिखरा पड़ा था जमीन पर
वही बारिश मुझ पर भी गिरी
पर  भिगा ना सकी थी मुझे
.....रजनीश (16.06.2013)



   

Monday, May 28, 2012

चेहरों का शहर














( अपनी एक पुरानी कविता पुनः पोस्ट कर रहा हूँ ....)

एक चेहरा
जो सिर्फ एक चेहरा है मेरे लिए
दिख जाता है अक्सर
जब भी पहुंचता हूँ चौराहे पर,
एक चेहरा हरदम सामने रहता है
चाहे कहीं से भी गुज़रूँ

कोई चेहरा होता है अजनबी पर
लगता जाना पहचाना,
कभी चलते चलते मिल जाता है
कुछ नई परतों के साथ
कोई चेहरा जो दोस्त था,
कभी ऐसा  चेहरा मिल जाता है
पुराना जो दोस्त न बन सका था

कोई चेहरा ऐसा जिसे मैं पसंद नहीं
कोई ऐसा जो मुझे न भाया कभी
कुछ चेहरे कभी ना बदलते और
हैं हरदम बदलते हुए चेहरे भी
चेहरों पर चढ़े चेहरे मुखौटे जैसे
चेहरों से उतरते चेहरे नकली रंगों जैसे

हर चेहरे में एक आईना है
हर चेहरा अनगिनत प्रतिबिंब है
अगर कोई और देखे तो
वही चेहरा दिखता है कुछ और
हर गली चेहरों की नदियां
हर चौराहा चेहरों का समंदर है

अंदर बनते बिगड़ते खयालात
जागते सोते जज़्बात
सभी जुड़े चेहरों से
सूनी वादियों में भी दिख जाता
कोई चेहरा
बादलों , समुंदर की लहरों ,ओस की बूंद
और आँखों से टपकते मोती में भी चेहरे

एक चेहरा दिखता आँखें बंद करने पर
( एक चेहरा नहीं दिखता आंखे खुली होने पर भी !)

मैं ही हूँ इन चेहरों मैं
तुम भी हो इन चेहरों मैं
मैं एक बूंद नहीं चेहरों की नदी हूँ
नदी ही क्यूँ समुंदर हूँ
और तुम भी

बिना चेहरों के न भूत है न भविष्य
न हर्ष है न विषाद
न कुछ सुंदर न वीभत्स
और वर्तमान भी  शून्य है
अगर चेहरे नहीं तो
  न मैं हूँ न तुम
...रजनीश (24.05.2011)

Thursday, February 9, 2012

मेरी दुनिया

मैं चलता हूँ जिस रास्ते पर
एक मील एक कदम
और कभी एक कदम
एक मील का होता है

घर की  सीढ़ी से उतरते
सड़क पर आते आते
घर के भीतर पहुंच जाता  हूँ
और सड़क घर के भीतर 
आ जाती है कभी-कभी 

सड़क पर चलते चलते
देखता हूँ एक फ़िल्म हर रोज़
वही पीछे छूटते मकान
बदहवास से भागते वही लोग
वही आवाजें वही कदम 
जब भी इस सड़क से जाता हूँ
इस सड़क पर मैं नहीं होता

अंनजान चेहरों  में
दिखते अपने जाने-पहचाने 
मिलते हैं अपने जाने-पहचाने 
बेगाने भी हर रोज़ 

मेरे भीतर एक और मैं 
उसके भीतर शायद एक और 
परत दर पर कई जिंदगियाँ 
बारी-बारी दिन भर 
सामने आती रहती हैं 

दिन भर कई जगह 
बढ़ते कदमों के साथ 
थोड़ा-थोड़ा छूटता जाता हूँ 
कहीं मैं कहीं मेरे निशान 
हर डूबते सूरज के साथ 
शाम जो लौटता है 
पूरा मैं नहीं होता 
घर की दीवारें भी 
कुछ बदल जाती हैं 

रात को बंद  आंखे 
देखती हैं कुछ सड़कें घर और चेहरे 
जो रात समेट कर ले जाती है 
सुबह-सुबह अपने साथ 

कुछ पल रोज़ 
अपना चेहरा देखता हूँ 
आईने में ..
पहचान नहीं पाता 
देखते देखते 
अपना चेहरा भूल सा गया हूँ 
और  कुछ पलों से ज्यादा 
 ठहर नहीं सकता 
आईने के सामने 
क्यूंकि वक़्त कहाँ होता है इतना 
क्या करूँ ...
..........रजनीश (09.02.12)
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