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Sunday, May 1, 2011

विवाह

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आया था वो ले जाने ,ब्याह कर प्रेयसी को,
सजा हुआ था , एक राजकुमार की तरह,
सजे-धजे लोग सब ओर ,वैभव दिखता था हर कहीं ,
था खुशगवार मौसम ,बासंती बहार की तरह..

ऊंचे थे लोग बहुत महंगा था इंतजाम
महीनों ,अरबों लगे तब पूरे हुए थे काम,
फिर जिसका इंतज़ार था वो घड़ी भी आई
स्वप्न सदृश राजकुमारी सामने नज़र आई,
हौले से आकर अपनी वो अंगुली बढाई
तब राजकुमार ने सोने की अंगूठी पहनाई,
एक-दूजे को स्वीकारा ,  दोनों ने वादा किया
लिया चुंबन और अपनी प्रजा को दर्शन दिया ..

शाही ये शादी थी  या शादी का इंतजाम,
जिसमें हुआ था खर्चा देने पड़े थे दाम ?
क्यों था ये खास क्या इसका मूल्य बड़ा था ?
क्या इस प्रेम में सोने का रंग चढ़ा था ?
पर मुझे इसमें कुछ भी न शाही  लगा था 
गरीबों के विवाह  जैसा ही तो दिखा था ..
 
प्रेम वैभव में नहीं, प्रेम सिंहासन में नहीं,
प्रेम कौड़ियों में नहीं, प्रेम  हृदय  में होता है..
न अमीर न गरीब, प्रेम  अतुल्य होता है.. 
दो आत्माओं का मिलन,  हर  विवाह अमूल्य होता है..
...रजनीश (01.05.2011)
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