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Sunday, March 3, 2013

खेल इंसान का


राह तो बस राह है 
उसे आसां या मुश्किल बनाना  
इंसान का खेल है 

तकदीर तो बस तकदीर  है 
उसे बिगाड़ना या  बनाना 
इंसान का खेल है

पत्थर  तो बस पत्थर  है 
पत्थर को भगवान बनाना 
इंसान का खेल है 

फूल तो बस फूल है 
फूल  सेज़ या सिर पर चढ़ाना  
इंसान  का खेल है 

यार तो बस यार हैं 
यार को जात  रंग में ढालना 
इंसान का खेल है 

चाहत तो बस चाहत है 
उसे प्यार या नफ़रत बनाना 
इंसान का खेल है 

दीवारें तो बस दीवारें हैं 
उनसे घर या कैदखाने बनाना 
इंसान का खेल है 

आग तो बस आग है 
आग में जलना जलाना 
इंसान का खेल है 

पैसे तो बस पैसे हैं 
उन्हें कौड़ी या खुदा बनाना 
इंसान का खेल है 

धरती तो बस धरती है 
इसे ज़न्नत या जहन्नुम बनाना 
इंसान का खेल है 

इंसान तो बस इंसान है 
उसे हिन्दू या मुसलमान बनाना 
इंसान का खेल है 

......रजनीश (03.03.2013)

Tuesday, December 27, 2011

बदलता हुआ वक़्त


महीने दर महीने 
बदलते कैलेंडर के पन्ने 
पर दिल के कैलेंडर में 
 तारीख़ नहीं बदलती  

भागती रहती है घड़ी 
रोज देता हूँ चाबी 
पर एक ठहरे पल की 
किस्मत नहीं बदलती   

बदल गए घर 
बदल गया शहर 
बदल गए रास्ते 
बदला सफर 

बदली है शख़्सियत
ख़याल रखता हूँ वक़्त का 
बदला सब , पर वक़्त की 
तबीयत नहीं बदलती 

कुछ बदलता नहीं 
बदलते वक्त के साथ 
सूरज फिर आता है 
काली रात के बाद 

उसके दर पर गए 
लाख सजदे किए 
बदला है चोला पर 
फ़ितरत नहीं बदलती

क़यामत से क़यामत तक 
यूं ही चलती है दुनिया 
चेहरे बदलते हैं पर 
नियति नहीं बदलती ...
रजनीश (27.12.2011)
एक और साल ख़त्म होने को है पर क्या बदला , 
सब कुछ तो वही है , बस एक और परत चढ़ गई वक़्त की ....

Monday, December 12, 2011

दिल का रिश्ता


आज छूकर देखा 
कुछ पुरानी दीवारों को 
सीलन भरी 
जिसमें दीमक के घरों से
बनी हुई थी एक तस्वीर
बीत चुके वक्त की 

आज एक पुराने फर्श पर
फैली धूल पर चला 
उस परत के नीचे
अब भी मौजूद थे 
मेरे चलने के निशान
कुछ जाले लिपट गए
मेरे हाथों से 
मकड़जालों के पीछे 
अब भी जीवित था 
अपनापन लिए एक मकान

धूल झाड़ी
जालों को हटाया
सो रही दीवारों को झिंझोड़ा
किए साफ कुछ वीरानगी के दाग
बिखरे हिस्सों को समेटा
 कुछ परतों को उखाड़ा

और पुराना वक्त 
फिर लौट आया 
दीवारों पर उभरे 
कुछ चेहरे 
जी उठी दीवार
सांस लेने लगी जमीन 
परदों से झाँकने लगे 
पुराने सपने 
कुछ पुरानी ख्वाहिशें 
कुछ पुराने मलाल 
खट्टी-मीठी यादों की गंध 
फैल गई हर कोने 

दिल का रिश्ता 
सिर्फ दिल से ही नहीं 
दीवारों से भी होता है ..  
रजनीश (12.12.2011)   

Saturday, June 4, 2011

मेरा पता

DSCN3718
सुबह-सुबह
मॉर्निंग वॉक पर
कभी दिख जाती है  एक शाम
और मैं मिलता हूँ
खोया हुआ एक भीड़ में
और अक्सर दिखते हैं
रास्ते में पड़े
ऑफिस के कागजात

ऑफिस के लिए निकलते हुए
घर से, कई बार ये पाया है
कि ऑफिस तभी पहुँच गया था
जब घर पर कर रहा था
प्रार्थना ऊपर वाले से

टेबल पर काम करते-करते
कागज पर उभरते अक्षरों से
झाँकते चेहरे देखता रहता हूँ
जो अक्सर धीरे से निकल
फाइलों में घुस जाते हैं
लंच की रोटी में
दिख जाती है किसी की भूख
सब्जी के मसालों में
मिला होता है फिल्मी रोमांच
एक  काम की रूपरेखा बनाते बनाते
घर के चावल-दाल का खयाल ..
कुछ घर के सपने बुन लेता हूँ
नौ इंच की कंप्यूटर स्क्रीन पर
दोस्तों से हाथ मिलाता हुआ
ऑफिस में नहीं रह जाता हूँ मैं
सामने दरवाजे पर निगाहें डालता हूँ
तो बाहर दिखता है घर का आँगन
फिर टेबल पर उछलती  ढेरों ज़िंदगियों
में घुसकर वापस अपनी
ज़िंदगी में आ जाता हूँ रोज़ ..

घर लौटने पर दिखती है
मुंह चिढाती ऑफिस की आलमारी
जिसकी बाहों में  होती है मुझसे छूटी
घर के कामों की फेहरिस्त
फिर दिल में सुकून होता है
घर में अपनों के बीच होने का
बिस्तर पर लेटे-लेटे
ऊपर चलते पंखे में घुस जाता हूँ
और गिरता हूँ ऑफिस की टेबल पर
ऊपर लगे पंखे से ..
फिर वहीं पड़े पड़े नींद आ जाती है ...
है दिनचर्या नियत
पर नहीं तय कर पाया आज तक
कि कब घर में होता हूँ
और कब ऑफिस में ...

जहां वो मुझसे मिलता है मैं वहाँ नहीं होता
जो मुझसे रूबरू होता है , वो वहाँ नहीं होता
मैं जहां होता हूँ , मैं वहाँ नहीं होता
मैं वहीं मिलता हूँ, मैं जहां नहीं होता ...
...रजनीश (04.06.2011)

Tuesday, March 15, 2011

कंपन

DSCN3703
धरती काँपती है ,
हर तरफ होता विनाश साक्षी है ।
दिन में ,
कुछ पलों के लिए
मैं  भी जमीन पर होता हूँ,
पर कभी महसूस नहीं हुआ,
जमीन का तनाव, वो कंपन ।
कल कान लगाकर
सुनने  की कोशिश की
धरती की धड़कन,
बस अपनी ही ध्वनि सुन सका ।
पर, शांति के इस समुद्र का  तल
अशांत पत्थरों का घर क्यूँ  है ?
धरती  अधूरी है अभी ,
अजन्मी, अर्धविकसित,  
तभी तो भीतर ये हलचल है ।
कुछ अभी तक अधूरा ।
क्यों ,मेरे अंदर भी
ढेर सारा और दबा हुआ
लावा है ?  क्यूंकि मैं भी
इसी धरती का पुत्र हूँ ?
इसका अंश , पूरा-पूरा धरती जैसा ,
मैं भी तो अभी गर्भ में हूँ ।
उसी अधूरेपन, उसी अपूर्णता
का रोपण इसकी छाती
पर भी करता हूँ ।
अपनी दुनिया बसाता हूँ,
एक अस्थिर नींव पर
अधूरा, अशक्त मकान  बनाता हूँ
और करता रहता हूँ असफल कोशिश
अपनी नश्वरता को पोषित
करने की इस घर में ।
बस एक आशा है ..
जब धरती  बन जाएगी पूरी,
तब  नदी  कभी गांव में नहीं आएगी,
सागर तांडव नहीं करेगा ,
झील गुम नहीं होगी,
पहाड़ चलना बंद कर देंगे,
हरी-हरी  चादर को नहीं जलाएगा लावा,
कोई घर भी नहीं टूटेगा,
और फिर मेरा जन्म होगा ,
एक शांत, संतुष्ट और सम्पूर्ण मैं ...
..रजनीश (15.03.2011)

Sunday, February 20, 2011

दुनिया

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जहां रहता हूँ  मैं, है वो  इक दुनिया,
जहां घर तुम्हारा  , वो भी इक दुनिया...

देखा था जिसे ख्वाब में ,  वो इक दुनिया,
हक़ीक़त में जो मिली ,  वो भी इक दुनिया...

था छोड़ा कल जिसे,  वो इक दुनिया,
कल मिलूँगा जहां तुमसे,  वो भी इक दुनिया...

बाहर  मिली जो मुझसे,  वो इक दुनिया,
ज़िंदा जो मेरे भीतर , वो भी इक दुनिया...

है तेरी और  मेरी, साझा वो इक दुनिया,
है ना तेरी  और ना मेरी ,  भी इक दुनिया !

तेरी दुनिया के अंदर मेरी, वो  इक दुनिया,
मेरी दुनिया के अंदर  तेरी, भी इक दुनिया...

जो मेरे कदमों तले कुचली, वो थी इक दुनिया,
जिसे  हाथों में है सम्हाला , ये भी इक दुनिया ...
.....रजनीश (20.02.2011)
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