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Monday, July 11, 2011

सुबह की चाय

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हर रोज़ सुबह
दरवाजे पर संसार
पड़ा हुआ मिलता है
चंद पन्नों में
चाय की चुस्कियों में
घोलकर   कुछ लाइनें
पीने की आदत सी हो गई है
और साथ इस एहसास को जीने की
कि कुछ बदला नहीं
सब कुछ वैसा ही है
जैसा पिछली सुबह था
बासे पन्ने
होता वही है जो पहले हुआ था
संवाददाता बदलता  है
कल जो वहाँ हुआ था
आज यहाँ होता है
बस हैवानियत घर बदलती है
इन्सानियत एक कोना तलाशती है
कुछ पल ही लगते हैं 
इन बासे कसैले पन्नों को
रद्दी में तब्दील होने में
दुर्घटना दुष्प्रचार 
भ्रष्टाचार  व्यभिचार
कहीं आतंक कहीं आक्रोश
कहीं टूटा  सपना कहीं  बिछोह
थोड़ी खुशी ढेर सारा ग़म
कोई जलजला कहीं विद्रोह
खबरें रोज़ जनमती रोज़ मरती हैं
रहती हैं दफन इन पन्नों में
जब गठरी बड़ी हो जाती है
रद्दी वाले की हो जाती है
और हर बार टोकरी देख
सोचता हूँ क्या यही है संसार
जो है इन अखबारों में?
क्या करूँ जो इन पन्नों का
चेहरा बदल जाए
निकले इनमें से प्यार की महक
जिन्हें पढ़कर चेहरा खिल जाए
और सुबह सुबह
चाय की चुस्कियों  में
कुछ मजा आ जाए.... 
...रजनीश (11.07.2011)

Saturday, July 9, 2011

अंधेरा

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एक अंधेरा ,
मेरी आवाज
जब देख नहीं पाती तुम्हें ,
जब नहीं सुनाई देती मुझे
बातें दीवारों पर
लिखी इबारतों की,
जब हर वो चीज खो जाती है
जो दिला सके
तुम्हारे होने का एहसास ,
रात ज्यों घुस आती है कमरे में
छोड़कर चाँद-तारे
कहीं दूर  वादियों में,
आईना हो जाता है जब अंधा,
नज़रें दे जाती हैं धोखा,
अंधेरा छा जाता है
रोशनी के हर एक ठिकाने पर,
मैं कर लेता हूँ बंद आँखें
और एक छोटी सी लौ
कहीं मन से उतर कर
बैठ जाती है अंदर आंखों के करीब
दिखने लगता है पूरा मंजर
और जन्म होता है रोशनी का

मैं हूँ एक अंधेरे की परत
जो  फैली हो गर मुझसे बाहर
कुछ भी नज़र नहीं आता 
अंधेरे के सिवा
"मैं" ही है अंधेरा
इसे हर जगह से खुरचकर समेटकर
आँखों के अंदर बंद कर लेता हूँ
अंधेरा नहीं रह जाता है
एक अंधेरा रोशनी में भी रहता है ...
और बंद आँखों से वो दिखता है
जो रोशनी में छुपा रह जाता है ...
...रजनीश (09.07.2011)
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