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Sunday, November 29, 2015

धुंध

अब सूरज को
रोज ग्रहण लगता है
सूरज लगता है निस्तेज
सूरज की किरणों पर तनी
इक  चादर मैली सी
जिसे ओढ़ रात को  चाँदनी भी
फीकी होती दिन-ब-दिन
धुंध की चादर फैली
सड़कों गलियों से
जंगलों और पहाड़ों तक
कराती है एहसास
कि हम विकसित हो रहे हैं ...
....रजनीश (29.11.15)



Friday, February 27, 2015

राह-ए-इश्क


राह-ए-इश्क में क्यूँ गमों की भीड़ सताती है
हो कितनी ही काली रात सुबह जरूर आती है

बाग-ए-बहार दूर सही गमोसितम की महफ़िल से
फूलों की महक भला काँटों से कहाँ रुक पाती है

मंज़िलें खो जाने पर कहाँ ख़त्म होता है सफ़र
गुम हो रही राह से भी एक राह निकल आती है

फिक्र नहीं गम-ओ-दर्द का बसेरा मिलता है हर राह
कड़ी धूप हो या बारिश एक छांव तो मिल जाती है  

राह-ए-इश्क में लुटा खुद को सारी खुशियाँ लुटा दो
गमों  के साये गुम जाते हैं हर खुशी लौट आती है  

........रजनीश (27.02.15)

Friday, May 30, 2014

अच्छे दिन


अच्छे दिन ....

कौन से दिन होते हैं अच्छे
जिस दिन होता हूँ मैं अच्छा
या जिस दिन होते हो तुम अच्छे
या जिस दिन मैं तुम्हारे लिए अच्छा
या जिस दिन तुम मेरे लिए अच्छे

कौन से दिन होते हैं अच्छे
जिस दिन हम दोनों ही हों अच्छे
या सारा जग ही हो अच्छा
या जिस दिन हम जग के लिए अच्छे
या जिस दिन जग हमारे लिए अच्छा

कौन से दिन होते हैं अच्छे
जिस दिन की जब बीती रात अच्छी
या जिस दिन की सुबह अच्छी
या जिस दिन की दोपहर शाम अच्छी
या जो दिन पूरा का पूरा अच्छा

कौन से दिन होते हैं अच्छे
जिनसे पहले बीते हों बुरे दिन
या जिनके आगे हों बुरे दिन
या जो कभी बीते ही नहीं वो दिन
या जो कभी आते ही नहीं ऐसे दिन

कौन से दिन होते हैं अच्छे
मुट्ठी भर अच्छे पलों वाले दिन
या ढेर सारे अच्छे पलों वाले दिन
या  जो बीत गए वो पुराने हुए  दिन
या जो आएंगे वो उम्मीदों वाले दिन

अच्छा दिन गर खोजें तो सपना है
अच्छा दिन गर जी लें तो अपना है
जो सच होता है वर्तमान में
अच्छा दिन ना बीतता है
अच्छा दिन ना आता है
जो जीता है वो पाता है
अच्छा दिन बस होता है
अभी यहीं हर कहीं
आज है अच्छा दिन ......

रजनीश ( 30.05.2014)

Thursday, June 20, 2013

ये तय नहीं ...


तय है कि, धरती का सूरज
निकले है पूरब से
पर मेरा भी सूरज, पूरब से निकले
ये तय नहीं....

तय है कि, रात के बाद
आती है एक सुबह
पर हर रात की , एक सुबह हो,
ये तय नहीं....

तय है कि, पानी भाप होकर
बन जाता है बादल
पर उमड़-घुमड़ कर यहीं आ बरसे  
ये तय नहीं....

तय है कि, बिन आँखों के
नज़ारा दिख नहीं सकता
पर आंखों से सब दिख जाएगा
ये तय नहीं ....

तय है कि, ज़िंदगी पूरी हो
तो आ जाती है मौत,
पर मौत से पहले मौत ही ना हो
ये तय नहीं ....

तय है कि, ज़िंदगी पूरी हो
तो आ जाती है मौत,
पर मौत होने से कोई मर ही जाए
ये तय नहीं ....

तय है कि, मेहनत का फल
मीठा होता है
पर हर मेहनत का फल निकले
ये तय नहीं...

ये तय है कि, प्यार भरी हर अदा
खूबसूरत होती है
पर खूबसूरत अदा प्यार ही होगी  

ये तय नहीं ...
...........रजनीश (20.06.2013)

Tuesday, February 26, 2013

एक ख़ोज


सपनों की फेहरिस्त लिए 
रोज़ चली आती है रात 
गुजार देते है उसे, ढूंढते 
फेहरिस्त में अपना सपना 

कुछ तारों को तोड़ रात 
कल सोये साथ लेकर हम 
 गुम हुए सुबह की धूप में 
जैसे गया था बचपन अपना 

हर गली से गुजरते जाते हैं 
 लिए हाथों में तस्वीर अपनी 
अपनों के इस वीरान शहर में 
बस ढूंढते रहते हैं कोई अपना 

कुछ दिल उतर आया था
लाइनों में बसी इबारत में 
लिफ़ाफ़े पर कभी उसका 
कभी पता लिख देते है अपना 

चलते हैं कहीं पहुँचते नहीं 
थका देते ये पथरीले रस्ते 
रस्ता ही तो है वो मंज़िल 
  ज़िंदगी है हरदम चलना 

......रजनीश (26.02.2013)

Wednesday, February 15, 2012

तुम्हारा ही नाम











सुबह की सुहानी ठंड
बिछाती है ओस की चादर
घास पर उभर आती है
एक इबारत
हर तरफ
दिखता है बस
तुम्हारा ही नाम

राहों से गुजरते
वक़्त की धूल
चढ़ जाती है काँच पर
पर हर बार
गुम होने से पहले
इन उँगलियों से
लिखवा लिया करती है
तुम्हारा ही नाम

एक पंछी अक्सर
दाना चुगते-सुस्ताते
मुंडेर पर छत की
गुनगुनाता और बतियाता है
और वहीं पास बैठे
पन्नों पे ज़िंदगी उतारते-उतारते
उसकी चहचहाहट में
मुझे मिलता है बस
तुम्हारा ही नाम

सूरज को विदा कर
जब होता हूँ
मुखातिब मैं खुद से
तो बातें तुम्हारी ही होती हैं
और फिर थपकी देकर
लोरी गाकर जब रात सुलाती है
तो खो जाता हूँ सपनों में
सुनते सुनते बस
तुम्हारा ही नाम
......रजनीश (15.02.2012)

Wednesday, November 30, 2011

ज़िंदगी की दौड़

2011-10-30 17.08.26
शुरू होता है हर दिन
अजान की आवाज़ से
चिड़ियों की चहचहाहट
कुछ अंगड़ाइयों में
विदा होती रात से बातें
फिर धूप की दस्तक
और मंदिर के घंटे
अब लगते हैं दौड़ने
हम एक सड़क पर
जो बस कुछ देर ही सोती है
कानों में घुलता
सुबह का संगीत
कब शोर में बदल जाता है
पता ही नहीं चलता

सूरज के साथ
होती है एक दौड़
और दिनभर बटोरते हैं हम
कुछ चोटें, कुछ उम्मीदें
कुछ अपने टूटे हिस्से
और कुछ चीजें  सपनों की खातिर
पर साथ  इकठ्ठा होता ढेर सारा
बेवजह कचरा और तकलीफ़ें
जो  दौड़ देती है हमें
ये कीमत है जो चुकानी पड़ती है
दौड़ में बने रहने के लिए
एक  अंधी दौड़ 
एक मशीनी कारोबार
एक नशा
जो पैदा होता है
एक सपने की कोख में
और फिर उसे ही खाने लगता है
दौड़ में हमेशा सूरज जीतता है
कूद कर जल्दी से पहुँच जाता है
पहाड़ के पीछे
और जब हम पहुँचते है अपने घर
हाँफते-हाँफते और खुद को बटोरते
दरवाजे पर रात मिलती है
खुद को पलंग पर
पटक कर कब सो जाते हैं
कब खो जाते हैं
पता ही नहीं चलता ...

बहुत थका देता है सूरज ....
सूरज तो कभी नहीं कहता
दौड़ो  मेरे साथ,
तो क्या लालच..
नहीं वो तो बीच रास्ते मेँ
साथ हो लेती है,
दरअसल हमें प्यार दौड़ता है ...
...रजनीश (30.11.2011 )

Sunday, November 20, 2011

दास्ताँ - एक पल की

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कुछ रुका सा कुछ थका सा
कुछ  चुभा सा कुछ फंसा  सा
ये पल लगता है ...

कुछ बुझा सा कुछ ठगा सा
कुछ घिसा सा कुछ पिसा सा
ये पल लगता है  ...

कुछ गिरा सा कुछ फिरा सा
कुछ दबा सा कुछ पिटा सा
ये पल लगता है ...

दिल में है कुछ बात
जो इस पल से हाथ मिला बैठी
हाथ न आएगा अब जरा सा
ये पल लगता है ...

धूप ठहरती नहीं
न ही रुक पाती है रातें
गुजर जाएगा झोंका निरा सा
ये पल लगता है ...
.....रजनीश ( 20.11.2011)

Sunday, October 16, 2011

कुछ तकलीफ़ें

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तकती रह गईं खिड़कियाँ धूप का आना ना हुआ
फंस के रह गई परदों में रात का जाना ना हुआ

दुनियादारी के खूब किस्से गली-गली चला करते है
कोशिश भी की पर कहीं ईमां बेच आना ना हुआ

चाहत हमें कहती रही  दो उस सितमगर को जवाब
खुद की नज़रों में दिल से कभी गिर जाना ना हुआ

दिल पे चोट लगती रही  अपना खून भी जलाया हमने
पर नादां नासमझ ही रहे थोड़ा झुक जाना ना हुआ

वक़्त हमें समझाता रहा  दरिया के किनारे खड़े रहे
उलझे हुए टूटे धागों को पानी में छोड़ आना ना हुआ

माना है अपने हाथों में अपनी तक़दीर लिखते हैं  हम
फिर भी कुछ मांगने ख़ुदा के दर ना जाना ना हुआ

....रजनीश ( 16.10.2011)

Saturday, June 11, 2011

तस्वीर एक रात की

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एक कोने में सिमटी
ओढ़े एक चादर
रात हौले से उठती है
धीरे धीरे लेती सब कुछ
अपने आगोश में
जर्रे-जर्रे में बस जाती है रात ,
एक खामोशी  गिनती है
रात के कदम,
लहराकर चादर रात की
गिरा देती है एक किताब
एक पन्ना अधूरी नज़्म,
खो जाती है कलम
रात के साये में,
लैंप की रोशनी
घुल जाती है अँधेरों में,
रात की अंगुलियाँ
तैरती हैं पियानो पर
रात से टकराकर गूँजते सुर
समाने लगते हैं किताब में,
एक और खामोशी टूट जाती है भीतर
तब  सिर्फ तुम याद आते हो ....
...रजनीश (11.062011)

Wednesday, May 18, 2011

थोड़ा सा रूमानी हुआ जाए

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दिन का हर सिरा
वही पुराना लगता है
वही चेहरे वही खबरें
वही रास्ता वही गाड़ी
वही हवा वही धूप
वही रोड़े वही कोड़े
फ्रेम दर फ्रेम
दिन की दास्तां
वही पुरानी लगती है ...

एक सी काली रातों में
कुछ उतनी ही करवटें
नींद तोड़-तोड़ कर आंखे
देखती मकड़जालों से लटके
वही फटे-पुराने ख़्वाब
कभी पर्दे से झाँकता
दिन का वही भूत
रात की भी हर बात
वही पुरानी लगती है ...

एक ही गाना
चलता बार-बार
हर बार झंकृत होता
वही एक तार
फिर भी  उड़ती नहीं
कल की फिक्र धुएँ में
एक सी जलन  हर पल सीने में
नादान दिल का  डर भी
वही पुराना लगता है  ...

चलो छोड़ो कुछ पल इसे
रखो बगल में अपनी गठरी
थोड़ा सुस्ताएँ !
आओ बैठें , एक दूजे को
जरा निहारें ,
कुछ बतियाएँ !
कैसे हो गए !
चलो एक-एक प्याला चाय हो जाए
कुछ ऊब से गए हैं
थोड़ा सा रूमानी हुआ जाए ....
... रजनीश (17.05.11)

Sunday, February 6, 2011

आस

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एक दिन, चढ़ गया है..
एक पत्ता, झड़ गया है..
एक दोस्ती,  टूट गयी है..
एक डोर, छूट गयी है..
एक पता, गुम गया है..
एक रास्ता, रुक गया है..
एक रंग , धुल गया है..
एक बंधन, खुल गया है..

एक कमरा, खाली है..
एक क़रार, जाली है..
एक किस्मत, रूठी है..
एक मुस्कान, झूठी है..
एक रिश्ता, अज़ीब है..
एक दिल, गरीब है..
एक डगर, अनजानी है..
एक सौदा, बेमानी है..
एक रात , बहुत लंबी है..
एक बात , बहुत लंबी है..
...............
...............
एक मयखाना , वहाँ साक़ी है..
एक जाम , अभी बाकी है..
एक सपना, अधूरा है..
एक पन्ना,  कोरा है..
एक आस , अभी ज़िंदा है..
एक इंसान, शर्मिंदा है..
एक धड़कन, मचलती है..
एक ज़िंदगी, चलती है ..…..
………………..रजनीश (06.02.2011)

Wednesday, January 19, 2011

रात से बात

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जब चाँद- तारे 
रज़ाई ओढ़े, सो गए थे ,
हवा भी थकी ,
आंखे मूँदे ,लेटी थी पत्तों पर ,
सारे पंछी ,
चुग्गा-दाना भूले ,
अँधियारे में गुम गए थे...
और  जलते दिये का तेल,
लड़ते हुए अंधेरे से, खप गया था ,
सूखती बाती, हाँफते दिये की छाती
पर अब कालिख छोड़ रही थी,
तब,  कल 'रात' आई थी
मेरे कमरे में ,
पर मैं उसे नहीं मिला वहाँ ,
फिर  जब हवा ने अंगड़ाई ली
और  आँगन साफ किया-
सुनहली किरणों के लिए,
जाते जाते 'रात' ने पूछा था मुझसे,
कहाँ चले गए थे तुम ?
मैंने कहा तेल ढूंढ रहा था मैं,
बगल के कमरे मेँ,
'दिये' के लिए गया था वहाँ ,
एक सपना है.  दरअसल कुछ पुराना,
वो भी  तो है मेरे संग,
भटकते यूं ही आ गया था कभी ,
और तब से मेरे साथ ही रहता है,
भूल गया हूँ उसकी उम्र,
उसके चेहरे से भी पता नहीं कर पाता ,
सामने वाले पेड़ पर
हर साल पत्ते बदलते हैं,
पर इसका चेहरा बिलकुल नहीं बदला,
वो नहीं दिखा तुम्हें ? ,
वहीं बिस्तर पर तो था !
चादर मेँ छुपा था,
वही जगाए रहता है मुझे ,
दोनों ही जागते हैं,
सपना मेरे लिए और मैं सपने की खातिर,
तुम औरों की फिक्र करो...
उन्हें सुलाओ ...
थक गई होगी, जाओ अब आराम करो,
सपना भी वहीं साथ खड़ा था
मेरे कंधे पर हाथ डाले ,
फिर हम दोनों ने मिलकर 'रात' को विदा किया .....
......रजनीश (19.01.11)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....