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Sunday, April 19, 2015

छोटी सी बात


एक हथेली पर
रखे हुए कई बरसों से
ज्यादा भारी हो जाता है
कभी कभी
दूसरी हथेली पर रखा
एक पल

पैरों से टकराते
अथाह सागर से
बड़ी हो जाती है
कभी कभी
अपने भीतर महासागर लिए
कोने से छलक़ती
...एक बूंद

खुले आकाश में
भरी संभावनाओं सी
अनंत हवा से
कीमती हो जाती है
कभी कभी
जीवन की छोटी सी
...एक सांस

बड़े-बड़े
दरख्तों की छांव से
ज्यादा सुकून देता है
कभी कभी
छोटा सा
...एक आँचल

आसमान छूते बड़े
सुनहरे महलों से
ज्यादा जगह लिए होता है
कभी कभी
मुट्ठी बराबर
...एक दिल

ज़िंदगी की बड़ी
उलझन भरी बातों से
बड़ी हो जाती है
कभी कभी
छोटी सी
...एक बात
....रजनीश (19.04.15)

Thursday, November 29, 2012

वक़्त वक़्त की बात













गुजरता जाता है वक़्त
वक़्त को पकड़ते-पकड़ते,

भूलता जाता हूँ अपनी पहचान
वक़्त को पहचानते-पहचानते,

खोता जाता है वक़्त
खोये वक़्त को समेटते-समेटते,

खुद से लड़ जाता हूँ
अपने वक़्त से लड़ते-लड़ते,

खुद उखड़ता जाता हूँ
भागते वक़्त को रोकते-रोकते...

जी लिया वक़्त को जिस वक़्त
बस वही वक़्त अपना होता है
वरना गुम जाती है आवाज़
बस वक़्त को पुकारते-पुकारते ...
.       .....रजनीश (29.11.2012)

Saturday, January 22, 2011

व्याकरण और शब्दकोश

shabd
चेहरे पे लिखी इबारत,
पढ़ना हो तो,
सिखाए गए व्याकरण से रिश्ता
तोड़ना पड़ता है,
भाषा की स्कूली किताब ,
वापस रखनी होती है शेल्फ मेँ ...
क्योंकि यहाँ शब्द एक लाइन में नहीं होते ,
पहले अल्प विराम और
फिर उसके बाद हो सकता है-
कई जाने-अनजाने चिन्हों के साथ 
कोई टूटे -फूटे शब्दों का कारवां,

चेहरे पर लटकती लिखावट में
भूतकाल  आ सकता है वर्तमान मेँ ,
प्रश्न हो जाता है उत्तर
और उत्तर मेँ मिलते हैं प्रश्न ,
चेहरे पर उभरे- इस मौजूद पल मेँ-
मुस्कुराते हुए शब्दों मेँ,
भविष्यकाल की किसी आशा
से   मुलाकात हो सकती है,
जो मैं है ,वो तू हो सकता है ,
और तू है , वो हो सकता है मैं...

चेहरे पर लिखी इबारत समझने मेँ,
खरीदे गए और अपने बनाए शब्दकोश  भी काम नहीं आते  ,
क्योंकि , खुशी के घर मेँ आपको
दुख का बसेरा मिल सकता है चेहरे पर,
ढाई आखर का अभिमान हो सकता है,
और घृणा मेँ लालसा.....
मेरा-तेरा , अच्छा-बुरा हो सकते हैं समानार्थी...
कोई सीमा नहीं, कोई बंधन नहीं ...
क्योंकि यहाँ कोई आत्मा नहीं रहती शब्दों में ,
और वो बदल-बदल मुखौटे  फिरते हैं चेहरों पर,

फिर जो चेहरे पर लिखा होता है ,
वो कभी-कभी छूने पर गुम हो जाता है,
कोई शब्द कभी  छुप जाता है,
और आँखेँ गड़ाकर देखो तो
कभी कोई अपना रूप ही बदल लेता है ,
ज्यादा करीब आओ
तो सारे के सारे  गुम हो सकते हैं
क्योंकि चेहरे पर उनके घर नहीं होते ,
वो भीतर चले जाते हैं ...
बड़ा विचित्र है उनका ठिकाना ,
जहां बैठा कोई पहनाता रहता है इन्हें मुखौटे ,
वो रहते हैं उस तिलस्म मेँ ,
जहां पर धड़कता है दिल,
वहाँ से बस कुछ बित्ते की दूरी पर ,
उनके कुछ कमरे ऊपर भी हैं 'भेजे' में  ,
कहाँ रहें , कहाँ से चलें ...
इसी ऊहापोह में शब्द भी थक जाते हैं कई बार,

ये शब्द नौकरी करते मिलते हैं
एक "अव्यक्त" की ,
जिसे  छुपाने या उभारने मेँ लगे होते हैं ये शब्द ,
जो चलते-चलते जुबां तक पहुँच पाते हैं
उन्हें सुन भी सकते हैं आप ,
बाकी इधर-उधर,
मसलन आंख वगैरह पर खड़े मिलते हैं  

बोलते चेहरे की बात
समझने /और झाँकते, फिरते शब्दों को पहचानने  -
उनके घर- उस तिलस्म तक जाना
होता है , और यारी करनी पड़ती है उनसे ,
खुद को बाहर फेंक कर वहीं रहना पड़ता है ,
वही चेहरा बन जाना होता है,
और तब शब्द , 
व्याकरण की असली किताब और असली डिक्शनरी
खुद ही लाकर रख देते हैं
आपके हाथों मेँ ....
....रजनीश (22.01.2011)
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