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Monday, March 24, 2014

नया पुराना



होती है नई शुरुआत
हर दिन सुबह के आँगन में
और हर दिन
ढलती शाम के साथ
पहुँच जाता हूँ
उसी पुरानी रात के दरवाजे पर
जो लोरियां सुनाकर
सुला देती है हर बार
कि फिर देख सकूँ
एक नई शुरुआत का सपना

होती है शुरुआत
हर दिन एक नए सफर की
जो गलियों चौराहों से होता
पहुँच जाता है
थका हारा हर शाम
उसी चौखट पर
जो देती है आसरा
कि जुड़ सकें चंद साँसे
और ले लूँ मैं कुछ दम
फिर नए सफर के लिए

होती है शुरुआत
नए चेहरों से नए रिश्तों की हर दिन
जो पेशानीयों पर पड़े बल और
दिलो दिमाग पर छाए जालों में उलझ
कुछ पलों में बासी और उबाऊ हो जाते हैं
और छोड़ जाते हैं जगह
कि देख सकूँ कोई नया चेहरा
बनाऊँ कोई नया रिश्ता

पुराने रस्तों के निशानों /
बीती रातों की यादों /
पुराने चेहरों की तस्वीरों /
सपनों की किताब के पन्नों / को
 बार-बार जीकर यही जाना है अब
कि जहाँ खोजा मैंने
बाहर वहाँ दरअसल
नया कुछ नहीं
सब वही पुराना था

यही जान सका हूँ
इस नए-पुराने की जद्दोजहद में
कि नयापन बाहर कहीं नहीं
वो भीतर है
मेरे देखने में
मेरे दिल की आखों में
मेरे नज़रिये में
कुछ इस तरह देखूँ तो हर पल नया है
पल वो जो आने वाला है
और वो भी जो बीत गया अभी-अभी
.....रजनीश ( 24.03.2014)

Wednesday, July 18, 2012

घूमता पंखा

मेज पर बिछे काँच में
देखता हूँ घूमते पंखे की परछाई
नहीं दिखती  थकान मुझे
उसके चेहरे पर एकबारगी से
पर देखा जब गौर से  तो
हुआ एहसास उसकी अधेड़ उम्र का

आती है कुछ आवाज़ भी
जब वो घूमता है,
शायद कुछ जंग और कोई पुर्जा है टूटा,
वक्त की कुछ खरोंचें
और उखड़ता पेंट बदन से,
अब  नहीं रही वो चमक
नयी ना रही अब वो छत 
अब परछाईं साफ नहीं देख पाता
मेज पर लगा काँच भी,
पंखे का पुरानापन
काँच में नज़र नहीं आया
एकबारगी से,
पर तन्हा बैठे बैठे
उसके पुरानेपन से
आज हो ही गई मुलाक़ात

दरअसल हवा लेते लेते
कभी ध्यान ही नहीं गया
पंखे की तरफ,
कितनी गर्मियाँ जी गया
कितना पसीना सुखाया ,
छत से उल्टे लटके और
रात दिन मेरे लिए
घूमते इस पंखे
के नीचे बैठ
ज़िंदगी के कितने पन्ने
रंग लिए मैंने


अहमियत ही क्या है पर इसकी
जिस दिन नहीं मिलेगी हवा
बदल दूँगा इसे...
मुझे हवा चाहिए
ये पंखा नहीं

और मैं भी उस पंखे से ज्यादा
कुछ नहीं ...
.....रजनीश (18.07.12)

Wednesday, May 18, 2011

थोड़ा सा रूमानी हुआ जाए

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दिन का हर सिरा
वही पुराना लगता है
वही चेहरे वही खबरें
वही रास्ता वही गाड़ी
वही हवा वही धूप
वही रोड़े वही कोड़े
फ्रेम दर फ्रेम
दिन की दास्तां
वही पुरानी लगती है ...

एक सी काली रातों में
कुछ उतनी ही करवटें
नींद तोड़-तोड़ कर आंखे
देखती मकड़जालों से लटके
वही फटे-पुराने ख़्वाब
कभी पर्दे से झाँकता
दिन का वही भूत
रात की भी हर बात
वही पुरानी लगती है ...

एक ही गाना
चलता बार-बार
हर बार झंकृत होता
वही एक तार
फिर भी  उड़ती नहीं
कल की फिक्र धुएँ में
एक सी जलन  हर पल सीने में
नादान दिल का  डर भी
वही पुराना लगता है  ...

चलो छोड़ो कुछ पल इसे
रखो बगल में अपनी गठरी
थोड़ा सुस्ताएँ !
आओ बैठें , एक दूजे को
जरा निहारें ,
कुछ बतियाएँ !
कैसे हो गए !
चलो एक-एक प्याला चाय हो जाए
कुछ ऊब से गए हैं
थोड़ा सा रूमानी हुआ जाए ....
... रजनीश (17.05.11)
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