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Friday, April 22, 2011

शीर्षक

021209 203
अगर  कोई शीर्षक
ना दिया होता 
तो क्या तुम इसे नहीं पढ़ते ?
और अगर पढ़ लेते
फिर जरूरत ही क्या
तुम्हें शीर्षक की ?
क्या तुम तय करते हो इससे ,
पढ़ना या  ना  पढ़ना ?
पर शीर्षक , कोई कविता तो नहीं
उसका एक अधूरा, अत्यल्प आभास है,
वो तो दीवार पर लगी एक तख्ती भर है,
जो बताती है कि यहाँ पर लगा है
जज़्बातों का अनंत ढेर,
इसे खँगालो और अपना मोती ले जाओ ..
शीर्षक पर मत जाओ
वो तो बस एक नाम ही है ...
...रजनीश (21.04.11)

Saturday, March 5, 2011

तुमने कहा था

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तुमने
कहा था,
कि जो चाँद  उस  रात  ,
तारों की चादर ओढ़े ,
तुम्हारी खिड़की पर आके बैठा था,
उसमें  एक पत्थर पे
खुदा मेरा नाम,
तुम पढ़ ना सके थे ...
पर मुझे उस पत्थर के करीब ,
धूल में बसे
तुम्हारे कदमों के निशान,
अब भी दिखते हैं ...
वो चाँद ,
मेरी खिड़की पर भी आता है, अक्सर ...
....रजनीश (05.03.2011)
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