अगर कोई शीर्षक
ना दिया होता
तो क्या तुम इसे नहीं पढ़ते ?
और अगर पढ़ लेते
फिर जरूरत ही क्या
तुम्हें शीर्षक की ?
क्या तुम तय करते हो इससे ,
पढ़ना या ना पढ़ना ?
पर शीर्षक , कोई कविता तो नहीं
उसका एक अधूरा, अत्यल्प आभास है,
वो तो दीवार पर लगी एक तख्ती भर है,
जो बताती है कि यहाँ पर लगा है
जज़्बातों का अनंत ढेर,
इसे खँगालो और अपना मोती ले जाओ ..
शीर्षक पर मत जाओ
वो तो बस एक नाम ही है ...
...रजनीश (21.04.11)