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Saturday, June 4, 2011

मेरा पता

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सुबह-सुबह
मॉर्निंग वॉक पर
कभी दिख जाती है  एक शाम
और मैं मिलता हूँ
खोया हुआ एक भीड़ में
और अक्सर दिखते हैं
रास्ते में पड़े
ऑफिस के कागजात

ऑफिस के लिए निकलते हुए
घर से, कई बार ये पाया है
कि ऑफिस तभी पहुँच गया था
जब घर पर कर रहा था
प्रार्थना ऊपर वाले से

टेबल पर काम करते-करते
कागज पर उभरते अक्षरों से
झाँकते चेहरे देखता रहता हूँ
जो अक्सर धीरे से निकल
फाइलों में घुस जाते हैं
लंच की रोटी में
दिख जाती है किसी की भूख
सब्जी के मसालों में
मिला होता है फिल्मी रोमांच
एक  काम की रूपरेखा बनाते बनाते
घर के चावल-दाल का खयाल ..
कुछ घर के सपने बुन लेता हूँ
नौ इंच की कंप्यूटर स्क्रीन पर
दोस्तों से हाथ मिलाता हुआ
ऑफिस में नहीं रह जाता हूँ मैं
सामने दरवाजे पर निगाहें डालता हूँ
तो बाहर दिखता है घर का आँगन
फिर टेबल पर उछलती  ढेरों ज़िंदगियों
में घुसकर वापस अपनी
ज़िंदगी में आ जाता हूँ रोज़ ..

घर लौटने पर दिखती है
मुंह चिढाती ऑफिस की आलमारी
जिसकी बाहों में  होती है मुझसे छूटी
घर के कामों की फेहरिस्त
फिर दिल में सुकून होता है
घर में अपनों के बीच होने का
बिस्तर पर लेटे-लेटे
ऊपर चलते पंखे में घुस जाता हूँ
और गिरता हूँ ऑफिस की टेबल पर
ऊपर लगे पंखे से ..
फिर वहीं पड़े पड़े नींद आ जाती है ...
है दिनचर्या नियत
पर नहीं तय कर पाया आज तक
कि कब घर में होता हूँ
और कब ऑफिस में ...

जहां वो मुझसे मिलता है मैं वहाँ नहीं होता
जो मुझसे रूबरू होता है , वो वहाँ नहीं होता
मैं जहां होता हूँ , मैं वहाँ नहीं होता
मैं वहीं मिलता हूँ, मैं जहां नहीं होता ...
...रजनीश (04.06.2011)
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