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Sunday, March 1, 2015

अच्छे दिन की आस


अच्छे दिन की आस में बीत गए कई माह
आओ खोजें उन्हें लगता भूल गए हैं राह

उठती-गिरती पेट्रोल की कीमत साँपसीढ़ी का खेल
अब पैदल चलना सीखो छोड़ो मोटर गाड़ी रेल  

कहाँ बचाएं कहाँ लगाएँ जो थोड़ा सा अपने पास
वही पुराना दर्द लिए देखो भटके मिडिल-क्लास

सपनों के बाजार में लुट गई जेब हम ढेर
सौदागर राजा बने अब तो नहीं हमारी खैर

....रजनीश ( 01.03.15)

Thursday, February 5, 2015

हसरतें



इक रास्ता जो था मिला, इक रास्ते में खो गया
इक सपना जो था दिखा, इक सपने में खो गया

प्यार की बगिया लगाने, बनाई थीं कुछ क्यारियाँ
बीज नफ़रत के न जाने, कौन उनमें बो गया

कुछ रेत ही मिल सकी, बनाया था इक आशियाँ
वो किनारा भी मेरा , समंदर का पानी धो गया

उसकी ख़िदमत की बड़ी हसरत से की तैयारियां
कहाँ रुकना था उसे बस ये आया और वो गया

सोचा था चलो एक चाँद है संग ऊपर आसमां
देखने बैठा था उसे , वो बादलों में खो गया

………..रजनीश (05.02.15)

Monday, February 2, 2015

ख़्वाहिश


मिल जाती जो नज़रें होती मुलाक़ात की ख़्वाहिश
हो जाती गर मुलाक़ात होती है बात की ख़्वाहिश

हो जाता है शामिल रस्में तोड़ने वालों में मौसम
जब बारिश में धूप और होती है ठंड में बारिश

मांग लेते हम भी वही गर दूसरे दर्द नहीं होते
रह जाती है फेहरिस्त में नीचे चाहत की गुजारिश

मिल जाती कामयाबी कुछ हम भी बन जाते  
रह जाती कसर थोड़ी अपनी कौन करे सिफ़ारिश

करते हैं कोशिश कि बढ़ते किसी सफ़र पर कदम
हो जाती है फिर शुरू हमारे सपनों की साज़िश

...........रजनीश (02.02.15)

Wednesday, June 26, 2013

वजूद का सच


तोड़कर भारी चट्टानें
 बनाया घर
 रोककर धार नदियों की
 बनाया बांध
 काटकर ऊंचे पहाड़
बनाया रास्ता
छेद कर पाताल
बनाया कुआं
पार कर क्षितिज
रखा कदम चांद पर
नकली बादलों से
जमीं पर बरसाया पानी
बंजर जमीन को सींच
बोया कृत्रिम अंकुर
क्या क्या नहीं किया ?
नदियों की धाराएँ मोड़ीं
हरे भरे पेड़ों को काटा
सुखाया सागरों को
कंक्रीट के जंगल बनाए

सपने की तरह उड़ना
तेज मन की तरह दौड़ना
सब कुछ आ गया मुट्ठी में
खुद से बेखबर रहने लगे

फिर आया एक जलजला
ढह गए सपनों के महल
बह गया इंसानी दंभ
सब छूट गया हाथ से फिसल
खोया खुद को
खो गए सब अपने
ना बचे खुद
ना बचे सपने
....रजनीश (26.06.13)

Friday, April 26, 2013

लीक से थोड़ा हटकर



सेब जब भी 
पेड़ से टूटकर गिरा
सबने उसे स्वीकारा 
वो हर बार जमीं पर मिला
 
पर ये देख एक हुआ बेहाल
उसने सेब से किया सवाल 
तुम नीचे ही क्यों हो आते 
तुम ऊपर क्यूँ नहीं जाते  
 
सेब का उत्तर था कमाल
हल हो गया था बड़ा सवाल
उस शख्स की सेब पर नज़र क्या गई
सेब फिर भी गिरते रहे पर दुनिया बदल गई ....
 
कितने सपने बुने
कितनी नज़्में लिखीं
सदियों गीतों में पंछी बन
उड़ने की हसरत दिखी  
 
फिर किसी ने सपना सच करने का बीड़ा उठाया 
जो कभी ना हुआ था वो करके दिखाया
ना उड़ पाने का मलाल
दिल पे ऐसा वार कर गया
उसने उड़कर ही दम लिया
और समुंदर पार कर गया.....
 
 पत्थरों से बनी आग
और शुरू हुई ये कहानी
हम इंसान, ईज़ाद करते गए
हमने  हार न मानी
गलतियों से सीखते गये
खुद को सुधारते गये
गुफाओं कन्दराओं से निकल
अपनी किस्मत संवारते गए
चाँद के उस पार भी पहुंचे हमारे कदम हैं
हुई खूब तरक्की हर तरफ हम ही हम हैं ....
 
कुछ पैदा करने की ललक
कुछ नया करने की चाहत
नई राह पर चलने की इच्छा
जवाब पाने की हमारी हसरत
ये रचनात्मकता नज़रिये में हो
तो हर परेशानी हल हो जाती है
लीक से हटकर जरा सोचें तो
पहाड़ों से भी राह निकल आती है
.........रजनीश ( 26.04.2013)
 
Creativity is allowing yourself to make mistakes. Art is knowing which ones to keep.
:: Scott Adams :: 
World Intellectual Property Day 26 अप्रेल को मनाया जाता है
यह वर्ल्ड इंटेलेक्चुवल प्रॉपर्टी ऑर्गनाइज़ेशन (WIPO) के द्वारा  2000 में शुरू किया गया है तथा इसका उद्देश्य है  to "raise awareness of how patents, copyright, trademarks and designs impact on daily life" and "to celebrate creativity, and the contribution made by creators and innovators to the development of societies across the globe" यह जानकारी विकिपीडिया से साभार



Wednesday, March 13, 2013

झूठे सपनों के पार

















है सूरज निकल पूरब से
 जाता हर रोज़ पश्चिम की ओर
पानी लिए नदियां हर पल
हैं मिलती रहती सागर में

बादल बरस बरस कर
करते रहते हैं वापस
जो धरती से लिया,
हर साल हरी हरी चादरें
ढँक लेती है धरती को इक बार
एक नृत्य हर वक्त
चलता रहता है
संगीत की लहरों पर

बदलते रहते हैं पत्ते
और बदलते पेड़ भी
देखती हैं बदलती फसलों को
खेत की मेड़ भी
ज़िंदगी हर पल लेती  सांस
फूटती कोपलों, पेड़ की डालों में
घोसलों, माँदों में पनपती असल ज़िंदगी
ना है ख्वाबों ना ख़यालों में

सब कुछ कितना नियत
कितना सरल
एक रंग बिरंगा चक्र
पर नहीं जाती मिट्टी की खुशबू
बंद नहीं होता चहकना
बंद नहीं होती पानी की कलकल
बंद नहीं होता पत्तों का हवा संग उड़ना
नहीं फीका पड़ता और
नहीं बदलता कोई भी रंग
सब कुछ वैसा ही खूबसूरत
रहा आता है समय की परतों में

पर  अंदर इस संसार के
है  संसार  और एक
बहुत अजीब और बहुत ही गरीब
जहां रुक जाया करता है  सूरज
सुबह नहीं होती कभी कभी
और कभी बहुत जल्दी आ जाती है शाम
जहां सावन में भी हो जाता है पतझड़
जहां दिन के उजाले में भी अक्सर
नहीं धुल पाता रात का अंधेरा
जहां नृत्य में भी बस जाता है शोक
जहां से  नज़र नहीं आता आँखों को
कायनात का खूबसूरत खेल
जहां नहीं सब कुछ सरल और सीधा
जहां है बहुत कुछ बनावटी
जहां बदरंग लगते नज़ारे
जहां गीत नहीं देता राहत

अजीब सी बात है
जब भी इस झूठी चहारदीवारी
को लांघने की कोशिश करता हूँ
कभी खुद लौट जाते हैं पैर
कभी कोई पकड़कर
खींच लेता है वापस
और मैं खड़ा  इस गरीब
और झूठे संसार से
झांक-झांक बाहर
यही सोचता हुआ हैरान हूँ
कि टूट क्यूँ नहीं जाती
ये मोटी-मोटी दीवारें
ताकि सामने के उस असली संसार से
महक लिए ठंडी मंद बयार
मुझ तक भी आ पहुँचती
और हर सुबह सुबह ही होती
और हर शाम होती एक शाम ...
रजनीश (13.03.2013)  

Tuesday, February 26, 2013

एक ख़ोज


सपनों की फेहरिस्त लिए 
रोज़ चली आती है रात 
गुजार देते है उसे, ढूंढते 
फेहरिस्त में अपना सपना 

कुछ तारों को तोड़ रात 
कल सोये साथ लेकर हम 
 गुम हुए सुबह की धूप में 
जैसे गया था बचपन अपना 

हर गली से गुजरते जाते हैं 
 लिए हाथों में तस्वीर अपनी 
अपनों के इस वीरान शहर में 
बस ढूंढते रहते हैं कोई अपना 

कुछ दिल उतर आया था
लाइनों में बसी इबारत में 
लिफ़ाफ़े पर कभी उसका 
कभी पता लिख देते है अपना 

चलते हैं कहीं पहुँचते नहीं 
थका देते ये पथरीले रस्ते 
रस्ता ही तो है वो मंज़िल 
  ज़िंदगी है हरदम चलना 

......रजनीश (26.02.2013)

Thursday, July 26, 2012

मैं जानता हूँ सब कुछ, फिर भी ...


मैं जानता हूँ
मेरी चंद ख़्वाहिशों के रास्ते
नक़्शे पर दिखाई नहीं देते,
मैं जानता हूँ
मेरे कुछ सपनों के घरों का पता
किसी डाकिये को नहीं,
मैं जानता हूँ
मेरे चंद अरमानों का बोझ
नहीं उठा सकते मेरे ही कंधे,
मैं जानता हूँ
मेरी तन्हाई मुझे ही
नहीं रहने देती अकेले ,
मैं जानता हूँ
मेरे कुछ शब्दों को
आवाज़ मिली नहीं अब तक,
मैं जानता हूँ
राह पर चलते-चलते
बहुत कुछ पीछे छूटता जाता है,
मैं जानता हूँ
कुछ लम्हे निकल जाते हैं
बगल से बिना मिले ही,
मैं जानता हूँ
बरस तो जाएगी पर
बारिश नहीं भिगोएगी कुछ खेतों को
मैं जानता हूँ ये सब कुछ,

मैं जानता हूँ सब कुछ...
फिर भी लगाए हैं कुछ बीज मैंने
फिर भी करता हूँ कोशिश मिलने की हर लम्हे से,
मैं जानता हूँ सब कुछ...
फिर भी लगा हूँ बटोरने रास्ते से हर टुकड़ा
फिर भी सँजोये रहता हूँ अनकहे शब्दों को जेहन में  
मैं जानता हूँ सब कुछ...
फिर भी कहता रहता हूँ तन्हाई से दूर जाने को
फिर भी देता हूँ डाकिये को अरमानों के नाम कुछ पातियाँ  
मैं जानता हूँ सब कुछ...
पर अक्सर नक्शों में ढूँढता हूँ
सपनों के वो रास्ते ...

मैं जानता हूँ
कि आस है मुझे कुछ करिश्मों की ….
.....रजनीश (26.07.12)

Wednesday, February 15, 2012

तुम्हारा ही नाम











सुबह की सुहानी ठंड
बिछाती है ओस की चादर
घास पर उभर आती है
एक इबारत
हर तरफ
दिखता है बस
तुम्हारा ही नाम

राहों से गुजरते
वक़्त की धूल
चढ़ जाती है काँच पर
पर हर बार
गुम होने से पहले
इन उँगलियों से
लिखवा लिया करती है
तुम्हारा ही नाम

एक पंछी अक्सर
दाना चुगते-सुस्ताते
मुंडेर पर छत की
गुनगुनाता और बतियाता है
और वहीं पास बैठे
पन्नों पे ज़िंदगी उतारते-उतारते
उसकी चहचहाहट में
मुझे मिलता है बस
तुम्हारा ही नाम

सूरज को विदा कर
जब होता हूँ
मुखातिब मैं खुद से
तो बातें तुम्हारी ही होती हैं
और फिर थपकी देकर
लोरी गाकर जब रात सुलाती है
तो खो जाता हूँ सपनों में
सुनते सुनते बस
तुम्हारा ही नाम
......रजनीश (15.02.2012)

Saturday, December 31, 2011

स्वागत ! नव वर्ष



आओ  नव वर्ष 
है स्वागत तुम्हारा 
हो तुम मुबारक 
ये सपना हमारा 

लड़ेंगे न भिड़ेंगे 
न ही दंगे करेंगे 
भाईचारे के साथ
प्रेम की राह हम चलेंगे

न लुटेगा कोई 
न भूखा रहेगा 
न ही भटकेगा कोई 
न तन्हा रहेगा 

बन जाएगा जीवन
गुलशन हमारा 
हो तुम मुबारक 
ये सपना हमारा 

पानी तुम लाना 
बाढ़ पर न देना 
न लाना तूफ़ान 
भूकंप तुम न देना 

जलाए ना सूरज 
जमाए ना ठंड  
मौसम बदलना
पर मौत तुम न देना 

प्रेम पर्यावरण से
वचन ये हमारा 
हो तुम मुबारक 
ये सपना हमारा 

है पता तुम हो भोले 
तुम झरने का जल हो
विनाश तुम नहीं 
तुम सुंदर कमल हो

हो दर्पण तुम्हारी देह पर 
हमारी ही छाया  
शुभाशुभ तुम्हारा चेहरा 
हमारी ही माया 

दो आशीष हमको 
चित्त शुद्ध हो हमारा 
हो तुम मुबारक 
ये सपना हमारा 


आओ  नव वर्ष 
है स्वागत तुम्हारा 
हो तुम मुबारक 
ये सपना हमारा ....
...रजनीश ( 31.12.2011)
नव वर्ष  2012 की  हार्दिक शुभकामनाएँ । 
नूतन वर्ष  मंगलमय  हो ।

Monday, December 12, 2011

दिल का रिश्ता


आज छूकर देखा 
कुछ पुरानी दीवारों को 
सीलन भरी 
जिसमें दीमक के घरों से
बनी हुई थी एक तस्वीर
बीत चुके वक्त की 

आज एक पुराने फर्श पर
फैली धूल पर चला 
उस परत के नीचे
अब भी मौजूद थे 
मेरे चलने के निशान
कुछ जाले लिपट गए
मेरे हाथों से 
मकड़जालों के पीछे 
अब भी जीवित था 
अपनापन लिए एक मकान

धूल झाड़ी
जालों को हटाया
सो रही दीवारों को झिंझोड़ा
किए साफ कुछ वीरानगी के दाग
बिखरे हिस्सों को समेटा
 कुछ परतों को उखाड़ा

और पुराना वक्त 
फिर लौट आया 
दीवारों पर उभरे 
कुछ चेहरे 
जी उठी दीवार
सांस लेने लगी जमीन 
परदों से झाँकने लगे 
पुराने सपने 
कुछ पुरानी ख्वाहिशें 
कुछ पुराने मलाल 
खट्टी-मीठी यादों की गंध 
फैल गई हर कोने 

दिल का रिश्ता 
सिर्फ दिल से ही नहीं 
दीवारों से भी होता है ..  
रजनीश (12.12.2011)   

Saturday, October 1, 2011

झुर्रियों का घर

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बनाया था जिन्होंने आशियाना
इकठ्ठा  कर एक-एक तिनका
जोड़ कर एक-एक ईंट पसीने से
किया था कमरों को  तब्दील घर में,
उसकी दहलीज़ पर बैठे वो
आज बस ताकते है आसमान में
और झुर्रियों भरी दीवारों पर लगी
अब तक ताजी पुरानी तस्वीरों से
करते हैं सवाल-जवाब बाते करते हैं ,
धमनियाँ फड़क जाती  हैं अब भी
कभी तेज रहे खून के बहाव की याद में 
धुंधली हो चली आँखों के आँगन में
आशा की रोशनी  चमकती  अब भी
कि ऐसा ही नहीं रहेगा सूना ये घरौंदा
और अपने खून से पाले हुए सपने
कुछ पल वापस आकर सुनाएँगे लोरियाँ,
आशा की रोशनी चमकती अब भी
कि सारे काँटों को बीन कर
अपने अरमानों और दीवानगी से
जो सड़क बनाई जिस अगली पीढ़ी के लिए
उनमें मे से कोई तो आएगा
हाथ पकड़ पार कराने वही सड़क ,
हर नई झुर्री से वापस झाँकता
वही पुराना समय पुराना मंजर
जब वो होते थे माँ की गोद में
और बुढ़ाती आँखों में अजब कुतूहल
जानी-पहचानी चीजों को फिर जानने  का
और सदा जवान खत्म ना होता जज़्बा
काँपते लड़खड़ाते लम्हों को पूरा-पूरा  जीने का ...
...रजनीश (01.10.11)
( 1 अक्तूबर , अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस पर )

Sunday, September 18, 2011

सपनों का हिसाब-किताब

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कल रात बैठा लेकर
सपनों का हिसाब किताब
अरमान, तमन्नाएँ , सपने
और हासिल का कच्चा चिट्ठा लिए
सोचता रहा कहाँ खर्च किया
पल दर पल खुद को
और कब-कब बटोरी दौलत
बताने लगे मेरे बही खाते
पन्ने दर पन्ने ...
ढेर सारे  पल लग गए
सपने देखने में,
न जाने कितने पन्ने भरे मिले
सपने में ही जीने की दास्ताँ लिए, 
बहुत से पल छोड़ने पड़े हैं
दूसरों के सपने सच करने ,
अरसे लगे कई बार 
धुंधले अधपके
सपनों को बार बार देखने
और उन्हें कई बार अधूरा जीने में,
कई मौसम चले गए 
टूटे बिखरे सपनों को समेटने में
फिर कुछ सपने जो मैं देखता हूँ
दूसरे की आँखों से
उन्हें भी देनी पड़ी है जगह
ज़िंदगी के पन्नों पर,
बैठ  तनहाई में गुजारे  कुछ पल  कई बार
याद करने कुछ भूले हुए सपने,
कई बार आँधी-तूफान और बारिश में
सपनों की पोटली सम्हालने
और बचाने में वक्त लगा
कड़ी धूप में सपनों को
बचाना भी पड़ा  झुलसने से,
न जाने कितनी  बार बाढ़ में
सपनों को दबाये हुए बगल में
मीलों और बरसों बहता रहा हूँ ,
काफी वक्त लग जाया करता है
पुराने रद्दी और सड़ते सपनों को
छांटने और फेंकने में,
कुछ सपने कभी सच हुए तो
हिसाब में उन्हें जीने का वक्त ही कम निकला,
कई बार ऊब भी हुई है सपनों से
तब गठरी को छोड़कर बस खिड़की से
नीले अनंत आसमान में देखने का दिल किया,
हिसाब लगा कर देखा
तैयारी या इंतज़ार में रहे अक्सर
और हर बार कुछ पल ही जिये
सपनों को सच होता देखते
हाँ ,सपनों का खाता खत्म  ना हुआ ...
....रजनीश (18.09.11)

Wednesday, July 27, 2011

उन्मुक्तता


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जब भी अपने में झाँका है,
पाया खुद को जकड़े और बंधे हुए ;
कहीं मैं बंधा, कहीं कोई बांधे मुझे,
जो मुझे बांधे , खुद बंधा है कहीं और भी
बुनते है जाल सभी,
बांधते यहाँ -वहाँ , फिर कभी यहाँ तोड़ा वहाँ जोड़ा ,
तोड़ने जोड़ने की कश्मकश ,
इन सारे बंधनों की जकड़न से दूर ,
इन्हें अलग रखकर चलना , सोचा बस है ;
सपना तो हो ही सकता है ये अपने आप को खोलकर पूरा पूरा देखने का ....

Thursday, July 14, 2011

अपना सा


आज अपनी एक पुरानी पोस्ट की हुई एक कविता पेश कर रहा हूँ 
बहुत पहले लिखी थी 
शायद आपने नहीं  पढ़ा होगा इसे ...

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लगा था कोई,
अपना सा / हिस्सा खुद का लगा था....
देखा था उसे -भीड़ में /
नया था पर लग रहा पुराना था/
जैसे खोया था कभी पहले कहीं
अब आ मिला था ....
जैसे टूटा था कभी पहले कहीं ,
अब आ जुड़ा था
अपना ही था  या दूसरा अपने जैसा,
या फिर था कोई हिस्सा किसी सपने का
पर लगा था अपना /
ताजिंदगी हिस्से रहते हैं बिखरते / टूटते / जुड़ते / मिलते / बिछुड़ते .....
 टूट कर गिरे बिखरे हिस्से एक जगह नहीं मिलते
कभी या कहूँ अक्सर कहीं पर भी नहीं .....
सारे हिस्से कभी नहीं होते साथ साथ   ,
कुछ अनजाने हिस्सों से भी जुड़ना होता है सफर में ...
हिस्से बटोरने और जोड़ने में
खुद बंटते जाते हैं हम  हिस्सों में ,
और ढूंढते रहते हैं हिस्सा कोई अपना .....
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....रजनीश

Monday, June 13, 2011

एक छुट्टी का दिन

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कुछ यादों की सिलवटें
कुछ उनींदें सपनों की उलझी लटें
कुछ गुफ़्तगू पुराने होते घर से
थोड़ा टीवी के साथ करवटें

कुछ बोरियत भरे लम्हों से लड़ाई
कुछ अहसासों से हाथापाई
कुछ बाहर-भीतर भरी रद्दी की छंटाई
थोड़ी मकड़जालों में फंसी ज़िंदगी की सफाई

कुछ अपनों से बातें
कुछ अपनी बातों की बातें
कुछ चाही-अनचाही मुलाकातें
थोड़ी  वक़्त को थाम लेने  की कोशिशें

कुछ गाने चाय के प्यालों में
कुछ पिछली  अधूरी साँसें
कुछ फिक्र को उड़ाते पलों से यारी
थोड़ी कोशिश खुद को जीने की हमारी

थोड़ी मुहब्बत थोड़ी इबादत
थोड़ी मरम्मत  थोड़ी हजामत
थोड़ा  काम थोड़ा आराम
अलसाई सुबह एक मुट्ठी शाम
...रजनीश (13.06.11)

Saturday, June 4, 2011

मेरा पता

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सुबह-सुबह
मॉर्निंग वॉक पर
कभी दिख जाती है  एक शाम
और मैं मिलता हूँ
खोया हुआ एक भीड़ में
और अक्सर दिखते हैं
रास्ते में पड़े
ऑफिस के कागजात

ऑफिस के लिए निकलते हुए
घर से, कई बार ये पाया है
कि ऑफिस तभी पहुँच गया था
जब घर पर कर रहा था
प्रार्थना ऊपर वाले से

टेबल पर काम करते-करते
कागज पर उभरते अक्षरों से
झाँकते चेहरे देखता रहता हूँ
जो अक्सर धीरे से निकल
फाइलों में घुस जाते हैं
लंच की रोटी में
दिख जाती है किसी की भूख
सब्जी के मसालों में
मिला होता है फिल्मी रोमांच
एक  काम की रूपरेखा बनाते बनाते
घर के चावल-दाल का खयाल ..
कुछ घर के सपने बुन लेता हूँ
नौ इंच की कंप्यूटर स्क्रीन पर
दोस्तों से हाथ मिलाता हुआ
ऑफिस में नहीं रह जाता हूँ मैं
सामने दरवाजे पर निगाहें डालता हूँ
तो बाहर दिखता है घर का आँगन
फिर टेबल पर उछलती  ढेरों ज़िंदगियों
में घुसकर वापस अपनी
ज़िंदगी में आ जाता हूँ रोज़ ..

घर लौटने पर दिखती है
मुंह चिढाती ऑफिस की आलमारी
जिसकी बाहों में  होती है मुझसे छूटी
घर के कामों की फेहरिस्त
फिर दिल में सुकून होता है
घर में अपनों के बीच होने का
बिस्तर पर लेटे-लेटे
ऊपर चलते पंखे में घुस जाता हूँ
और गिरता हूँ ऑफिस की टेबल पर
ऊपर लगे पंखे से ..
फिर वहीं पड़े पड़े नींद आ जाती है ...
है दिनचर्या नियत
पर नहीं तय कर पाया आज तक
कि कब घर में होता हूँ
और कब ऑफिस में ...

जहां वो मुझसे मिलता है मैं वहाँ नहीं होता
जो मुझसे रूबरू होता है , वो वहाँ नहीं होता
मैं जहां होता हूँ , मैं वहाँ नहीं होता
मैं वहीं मिलता हूँ, मैं जहां नहीं होता ...
...रजनीश (04.06.2011)

Sunday, May 29, 2011

एक इबारत

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झील की ओर
जा रहे हो ?
वहाँ  खड़ी दीवार पर
लिखी जो  इबारत है
मेरे सपनों का लेखा-जोखा ,
मेरी कहानी है..
पर उसमें मेरे सपने
नहीं  दिखेंगे तुम्हें ...
उन्हें समझना हो
तो वहीं दीवार से लगे
पेड़ से जमीं पर
टूट कर गिरते
पत्तों को देख लेना ...
...रजनीश (29.05.11)

Friday, May 27, 2011

लार्जर देन लाईफ

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बैट मैन,
सुपर मैन,
स्पाइडर मैन,
बच्चे-बड़े सभी हैं फैन ...

बचपन में ही इनसे
मिल जाती है ये सीख
कि बुराई को ख़त्म करना
आम आदमी के बस
की बात नहीं,
क्यूंकि कर सके
मुक़ाबला पहाड़ जैसी
हैवानियत का ,
खत्म कर दे उसे,
आम आदमी में
इतनी ताकत नहीं...

कुछ कौतूहल , कुछ रोमांच
और सपने इंसानियत के
देख सकें दिन में नैन
इसीलिए बनाए हमने 
बैट मैन,
सुपर मैन,
स्पाइडर मैन...
...रजनीश (15.05.11)

Sunday, April 17, 2011

एक सपने की बात

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सपना तो बस सपना   होता है,
जैसा भी हो ये अपना होता है,
पर जो टूट जाये वो सपना कैसा..
पूरा सच हो जाये वो सपना कैसा..

सपना वही जो सपना ही रहे,
हरकदम जो तुम्हारे संग चले,
ना  टूटे , ना तोड़े , ना पूरा मिले,
साँसे दे तुम्हें, बढ़ाए हौसले..

लगो दिल से  सच करने उसे,
जो  कभी खत्म नहीं होता है,  
इंसानियत से जीना भी,
ऐसा ही सपना होता है ...
...रजनीश (17.04.11)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....