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Wednesday, April 22, 2015

दास्तान-ए-कदम


अपने सफ़र में
आगे की ओर ही
मेरे कदम निकले
ऐसा तो नहीं
एक ही रास्ते पर चले
ऐसा तो नहीं
कहीं ना मुड़े
ऐसा तो नहीं
कहीं ना फ़िसले
ऐसा तो नहीं
कभी ना हों थके
ऐसा तो नहीं

कई बार मेरे कदम ठिठके 
सोचा कि फिर से करें शुरू
एक नई कोशिश
एक नई इबारत नया पन्ना
पर रुकना ना हुआ
और सोचा 
अधूरी लाइन कर लें पूरी

कई बार कदम मुड़े
और पहुँचे वापस वहीं
जहां था
कोई पिछला पड़ाव
जहां से शुरू की थी
एक नई कविता
एक नई कहानी
सोचा इसे नया नाम दें
नया रूप नया रंग दें

कई बार कदम चलते रहे 
एक गोल घेरे में
और खाते रहे चक्कर
इस मुगालते में
कि हैं किसी सीधे रास्ते पर
इस बात से बेखबर
कि पैरों तले जमीन  
तो बदल ही नहीं रही
जैसे एक ही लाइन 
एक ही पन्ना 
आ जाये नज़रों में बार-बार

कभी वक़्त को रोकने की जुगत में
कभी वक़्त से बचने की जुगत में
कदम रुक भी गए, पर 
वक़्त धकेलता रहा कदमों को
ना जाने कितनी बार
कितने मोड़ों पर
कदमों ने की कोशिश
कि बदल लें रास्ते
महसूस कर लें
कोई नई जमीन
कोई नई दिशा
कोई नई कहानी
कोई नई कविता
शुरू हो जाये 
सफ़र के भीतर
कोई नया सफ़र 

कई बार कदमों ने
खोजा और पाया भी
नया रास्ता
पर मीलों चलकर  
घूम-फिर कर
थक-कर
आ गए उसी पुरानी
कुछ अपनी ही लगती
पगडंडी पर
लौट आया हो जैसे कोई
परदेश से वापस अपने देश
और कदमों को लगा
कुछ भी हो
यही है अपना 
अपना तो यही रास्ता है
यही है अपनी नियति
  
हाँ , इतना जरूर हुआ
कि कदम जान गए
कई रास्तों को
उम्मीद भरे शहरों को
कदम वाकिफ़ हो गए
रास्तों भरी खूबसूरत
ज़िंदगी की वादियों से
कि चलो ये भी हैं
कुछ रास्ते 
हम ना सही
कोई और कदम तो हैं इनपर 

और हाँ
इस बात की
होती है खुशी
और मिलता है सुकून भी
कि कुछ भी हो
कुछ भी हुआ हो
शायद ये ही है नियति कि
अब भी 
कदम रुकते नहीं, बस
चलते रहते हैं
चलते रहते हैं
आशा और विश्वास के साथ
कदम ढूंढते ही रहते हैं
नई नई मंज़िलें
नई नई राहें


..........रजनीश (21.04.2015) 

Friday, February 27, 2015

राह-ए-इश्क


राह-ए-इश्क में क्यूँ गमों की भीड़ सताती है
हो कितनी ही काली रात सुबह जरूर आती है

बाग-ए-बहार दूर सही गमोसितम की महफ़िल से
फूलों की महक भला काँटों से कहाँ रुक पाती है

मंज़िलें खो जाने पर कहाँ ख़त्म होता है सफ़र
गुम हो रही राह से भी एक राह निकल आती है

फिक्र नहीं गम-ओ-दर्द का बसेरा मिलता है हर राह
कड़ी धूप हो या बारिश एक छांव तो मिल जाती है  

राह-ए-इश्क में लुटा खुद को सारी खुशियाँ लुटा दो
गमों  के साये गुम जाते हैं हर खुशी लौट आती है  

........रजनीश (27.02.15)

Sunday, March 3, 2013

खेल इंसान का


राह तो बस राह है 
उसे आसां या मुश्किल बनाना  
इंसान का खेल है 

तकदीर तो बस तकदीर  है 
उसे बिगाड़ना या  बनाना 
इंसान का खेल है

पत्थर  तो बस पत्थर  है 
पत्थर को भगवान बनाना 
इंसान का खेल है 

फूल तो बस फूल है 
फूल  सेज़ या सिर पर चढ़ाना  
इंसान  का खेल है 

यार तो बस यार हैं 
यार को जात  रंग में ढालना 
इंसान का खेल है 

चाहत तो बस चाहत है 
उसे प्यार या नफ़रत बनाना 
इंसान का खेल है 

दीवारें तो बस दीवारें हैं 
उनसे घर या कैदखाने बनाना 
इंसान का खेल है 

आग तो बस आग है 
आग में जलना जलाना 
इंसान का खेल है 

पैसे तो बस पैसे हैं 
उन्हें कौड़ी या खुदा बनाना 
इंसान का खेल है 

धरती तो बस धरती है 
इसे ज़न्नत या जहन्नुम बनाना 
इंसान का खेल है 

इंसान तो बस इंसान है 
उसे हिन्दू या मुसलमान बनाना 
इंसान का खेल है 

......रजनीश (03.03.2013)

Thursday, July 26, 2012

मैं जानता हूँ सब कुछ, फिर भी ...


मैं जानता हूँ
मेरी चंद ख़्वाहिशों के रास्ते
नक़्शे पर दिखाई नहीं देते,
मैं जानता हूँ
मेरे कुछ सपनों के घरों का पता
किसी डाकिये को नहीं,
मैं जानता हूँ
मेरे चंद अरमानों का बोझ
नहीं उठा सकते मेरे ही कंधे,
मैं जानता हूँ
मेरी तन्हाई मुझे ही
नहीं रहने देती अकेले ,
मैं जानता हूँ
मेरे कुछ शब्दों को
आवाज़ मिली नहीं अब तक,
मैं जानता हूँ
राह पर चलते-चलते
बहुत कुछ पीछे छूटता जाता है,
मैं जानता हूँ
कुछ लम्हे निकल जाते हैं
बगल से बिना मिले ही,
मैं जानता हूँ
बरस तो जाएगी पर
बारिश नहीं भिगोएगी कुछ खेतों को
मैं जानता हूँ ये सब कुछ,

मैं जानता हूँ सब कुछ...
फिर भी लगाए हैं कुछ बीज मैंने
फिर भी करता हूँ कोशिश मिलने की हर लम्हे से,
मैं जानता हूँ सब कुछ...
फिर भी लगा हूँ बटोरने रास्ते से हर टुकड़ा
फिर भी सँजोये रहता हूँ अनकहे शब्दों को जेहन में  
मैं जानता हूँ सब कुछ...
फिर भी कहता रहता हूँ तन्हाई से दूर जाने को
फिर भी देता हूँ डाकिये को अरमानों के नाम कुछ पातियाँ  
मैं जानता हूँ सब कुछ...
पर अक्सर नक्शों में ढूँढता हूँ
सपनों के वो रास्ते ...

मैं जानता हूँ
कि आस है मुझे कुछ करिश्मों की ….
.....रजनीश (26.07.12)

Wednesday, July 11, 2012

दो दुनिया का वासी

मैं हूँ
दो  दुनिया  का वासी

एक जहां  है सभी असीमित
दूजे में जीवन लख-चौरासी

मैं हूँ दो  दुनिया  का वासी ...

एक जहां तुमसे मिलता हूँ
सांस जहां हर पल लेता हूँ
जिसमें मेरे रिश्ते-नाते
रोज जहां चलता फिरता हूँ

दूसरी  सपनों की है दुनिया
जिसमें मेरा मन रहता है
उसकी देखा-देखी की कोशिश
इस दुनिया में तन करता है

मैं हूँ
दो  दुनिया  का वासी ...

सपने गर अच्छे होते हैं
इस जहान में खुश रहता हूँ
दर्द वहाँ का मुझे गिराता
इस  दुनिया  में दुख सहता हूँ

जो सपनों की दुनिया में  बुनता
और यहाँ जो कुछ मिलता है
अंतर जो पाता हूँ  इनमें
वही राह फिर तय करता है 

मैं हूँ
दो  दुनिया  का वासी

एक जहां है  सपने रहते
दूजे में काबा - कासी

मैं हूँ
दो  दुनिया का वासी...
.......रजनीश ( 11.07.2012)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....