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Sunday, January 31, 2016

सवाल ही सवाल

गली-गली शहर-शहर
ये हर कहीं का हाल है
उलझनों में कस रहे
हर किसी को डस रहे
झकझोरते खड़े हुए  सवाल ही सवाल हैं

किसी  के लिए आस्था
किसी के लिए परंपरा
किसी के हाथ हक के लिए
जल रही मशाल हैं
उलझनों में कस रहे
हर किसी को डस रहे
झकझोरते खड़े हुए सवाल ही सवाल हैं

किसी के लिए कचरा
किसी के लिए मौका
किसी के हाथ तख्ती लिए
भूख से बेहाल हैं
उलझनों में कस रहे
हर किसी को डस रहे
झकझोरते खड़े हुए  सवाल ही सवाल हैं

किसी के लिए बाजार
किसी के लिए प्रचार
किसी के लिए प्रदूषण
साँसों का सवाल है
उलझनों में कस रहे
हर किसी को डस रहे
झकझोरते खड़े हुए सवाल ही सवाल हैं

किसी के लिए शोहरत
किसी के लिए ताकत
किसी के लिए वजूद
और अस्मिता का सवाल है
उलझनों में कस रहे
हर किसी को डस रहे
झकझोरते खड़े हुए सवाल ही सवाल हैं

स्वार्थों के फेरे में
झूठे सवालों के घेरे में
सच का गला घुंट रहा
बस यही मलाल है
उलझनों में कस रहे
हर किसी को डस रहे
झकझोरते खड़े हुए सवाल ही सवाल हैं

गली-गली शहर-शहर
ये हर कहीं का हाल है
...रजनीश (31.01.16)

Friday, May 3, 2013

संजय जरूरी है ...


दर्पण झूठ ना बोले, पर दर्पण सच भी तो ना बोले
दिखाता है दर्पण, सच का उतना ही छोर
जो हो दर्पण के सामने, और हो दर्पण की ओर
पर दाएँ की जगह बायाँ, और बाएँ की जगह दायाँ
दिखता है कुछ उल्टा , ये है दर्पण की माया 
दर्पण के पीछे का सच, क्या कभी दर्पण दिखाता है
इसके पीछे चले जाने से, सामने का क्यूँ छिपाता है  

दर्शक की आँखों पर, होता सारा दारोमदार है
जिसे पता होती है असलियत, गर वो समझदार है  
कि जो दिख रहा दर्पण में, वो आभासी है अपूर्ण है
जो छुपा है मिलाकर उसे ही, हर कथा होती पूर्ण है

देखना होता है वह भी, जो दर्पण में नहीं
पूरा चित्र पूरा सच, उभरता है तब कहीं
बड़ा क्लिष्ट है सच, जैसी है ये सृष्टि
सच देखना हो तो, होनी चाहिए दिव्य दृष्टि

संजय को मिला था जिम्मा, संजय को देखना था सच
धर्म-अधर्म की लड़ाई का,धृतराष्ट्र को बताना था सच
वो पूरी लड़ाई का एक सूत्रधार था
इस दुनिया में आया पहला पत्रकार था
जब तक थी दिव्य दृष्टि , संजय सब कुछ देख सका  
सच का किया बखान,पीत पत्रकारिता से बच सका
न गलत बयानी की, न अनर्गल बात कही
सच सुनाता रहा, जब तक दिव्य दृष्टि रही
ख़त्म हुई लड़ाई, ख़त्म हुई कहानी
ख़त्म हुई रिपोर्टिंग, संजय की जुबानी

धर्म की लड़ाई दिखाने,धर्म जानना भी जरूरी है
दिव्य दृष्टि की आज़ादी संग, ज़िम्मेदारी भी जरूरी है
पत्रकारिता है सेवा, ये कोई व्यापार नहीं है
अधूरे सच को बेचता, ये कोई बाज़ार नहीं है
हो रही हैं लड़ाइयाँ, हम कितने गंदे हो गए है
संजय भी है जरूरी, क्यूंकि हम अंधे हो गए हैं...  
........रजनीश (03.05.2013)
पत्रकारिता  एवं प्रेस की आज़ादी पर 
3 मई को यू.एन. द्वारा World Press Freedom Day 
or World Press Day घोषित किया गया है । इसके मुख्य उद्देश्यों में
प्रेस की स्वतन्त्रता के संबंध में जागरूकता फैलाना शामिल है । इसी दिन 1991 में अफ्रीकी पत्रकारों द्वारा
प्रेस की स्वतन्त्रता पर बनाए गए विंडहोक (Windhoek Declaration) को adopt किया गया था ।  
(जानकारी वीकिपीडिया से साभार) )

यतः सत्यं यतो धर्मो यतो ह्रीरार्जवं यतः।
ततो भवति गोविन्दो यतः कृष्णस्ततो जयः।।
जहाँ सत्य है, जहाँ धर्म है, जहाँ ईश्वर-विरोधी कार्य में लज्जा है और जहाँ हृदय की सरलता होती है, वहीं श्रीकृष्ण रहते हैं और जहाँ भी श्रीकृष्ण रहते हैं, वहीं निस्सन्देह विजय है।

Sunday, April 15, 2012

कुछ शेर और थोड़े सच


इस जहाँ में किसी पर भरोसा नहीं होता
पर यहाँ पहरेदारों पर पहरा नहीं होता

यूं तो दुनिया भरी है चमक-ओ-दमक से
पर हर चमकता पत्थर हीरा नहीं होता

माना कुछ ऐसे ही रहे हैं तजुर्बे तुम्हारे
पर हर अजनबी साया लुटेरा नहीं होता

यूं तो मिल जाती है जगह रात बिताने
पर हर चहारदीवारी में बसेरा नहीं होता

भीतर झाँक लेते ना मिलता जहां ना सही
पर अपने चिराग तले अंधेरा नहीं होता

यूं तो रात के बाद सुबह आया करती है
पर हर अंधेरी रात का सबेरा नहीं होता

मुहब्बत अपने लिए हर आरज़ू अपने लिए
पर सच्चे प्यार का कोई दायरा नहीं होता

यूं तो ऊपर से दूर तलक दिखता है पानी
पर हर दरिया या सागर गहरा नहीं होता

बैठ लेता मैं अकेला उस खामोश तन्हाई में
पर तुम्हारी याद बिन वो पल गुजरा नहीं होता

यूं तो चंद लाइनें मैं लिख ही लेता हूँ हर रोज़
पर हर नई गज़ल में नया मिसरा नहीं होता
........रजनीश (15.04.2012)

Tuesday, June 7, 2011

परतें सच की

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क्या है सच
जो मेरे पास
या जो तुम्हारे पास
तुम्हारा सच मुझे धुंधला दिखता है
मेरा सच तुम्हें
सारे सच चितकबरे हैं शायद
कहीं काले कहीं सफ़ेद
कुछ अंधेरे में कुछ उजाले में
या सारे सच हैं बस अधूरी तस्वीरें
हम दोनों  ही नकार देते हैं
एक दूसरे का सच
दोनों सच को
एक बर्तन में मिलाकर देखो
शायद मिल जाये असली सच
पर चकित ना होना ,
खाली भी मिल सकता है
तुम्हें ये बर्तन

करीब से देखो
सच की होती है कई परतें
हर परत पर होता है सच
परत दर परत बदलता
गहराता चला जाता है सच
अब छील-छील कर परतें
डालते जाओ उसी बर्तन में
आखिरी परत उतरने के बाद
देखना, हाथ में कुछ नहीं बचता
इस कुछ नहीं का रूप
अपरिभाषित,  अज्ञात, अमूर्त, शून्य है
एक छलावा है, एक धारणा है सच
जायके के लिए बना एक व्यंजन
इसीलिए कभी-कभी कड़वा लगता  है
एक मजबूरी है सच ,
एक  आसरा है जीने का,
जिसकी जरूरत होती है
ऑक्सीजन  के साथ ,
इसीलिए उतनी ही परतें उघाड़ना इसकी
जितना तुम बर्दाश्त कर सको ...
...रजनीश (07.06.2011)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....