Showing posts with label जीना. Show all posts
Showing posts with label जीना. Show all posts

Thursday, November 29, 2012

वक़्त वक़्त की बात













गुजरता जाता है वक़्त
वक़्त को पकड़ते-पकड़ते,

भूलता जाता हूँ अपनी पहचान
वक़्त को पहचानते-पहचानते,

खोता जाता है वक़्त
खोये वक़्त को समेटते-समेटते,

खुद से लड़ जाता हूँ
अपने वक़्त से लड़ते-लड़ते,

खुद उखड़ता जाता हूँ
भागते वक़्त को रोकते-रोकते...

जी लिया वक़्त को जिस वक़्त
बस वही वक़्त अपना होता है
वरना गुम जाती है आवाज़
बस वक़्त को पुकारते-पुकारते ...
.       .....रजनीश (29.11.2012)

Sunday, October 9, 2011

एक अमर एहसास

1313717101017
दुनिया के शोर-गुल में
गुम जाती है अपनी आवाज़
भीड़ में खो जाता है चेहरा
गली-कूचों में अरमान बिखरते जाते हैं
वक्त की जंजीरों  में उलझते है पाँव
एक-दूजे को धकेलते बढ़ते चले जाते हैं
और हर एक बस रास्ता पूछता है ...
प्यारा था एक बाग
जिसे ख्वाब समझ दूर हो चले
एक फटी हुई चादर थी
जिसे नियति समझ के ओढ़ लिया
कुछ  पल जो मर गए
तो सँजो लिया उन्हें यादों में,
कुछ पलों को मारा
उन्हें सँवारने की ख़्वाहिश में ,
जो पल आने वाले थे
वो बस इंतज़ार में ही निकलते रहे,
भागते हाथों से फिसलते  रहे पल 
ज़िंदगी एक अंधी दौड़ बन के रह गई है ...
एहसास ही नहीं रहा कि
बिना जिए ही मरे हुए
भाग रहे हैं जिसकी तरफ
उस लम्हे का नाम है मौत ...
और जब पलों के चेहरे पर
दिखने लगती है लिखी ये इबारत
तब भूल जाते हैं बच-खुचा जीना भी
जबकि ये एक अकेला एहसास
अगर हो जाए सफ़र  की शुरुआत में,
तो दिल की आवाज़ पहुंचे  कानों तक
दिख जाए पावों को रास्ता
सफ़र बने बेहद खूबसूरत
और प्यार से रोशन हो जाए
खुल जाएँ सारी गाठें 
हर पल सुनहरा हो जाए
भीड़ से अलग दिखे चेहरा
जो दूजों को भी राह दिखाए ....
.....रजनीश ( 09.10.11)
(...स्टीव जॉब्स को समर्पित )

Thursday, June 30, 2011

चंद शेर थोड़ा अफसोस

DSCN1424
उनकी हर अदा पे मुस्कुराते रहे हम
चुभता है दिल में ये कहना न आया

मरते मरते आदत मरने की हो गई
करते   हैं कोशिश पर जीना न आया

कब हुए वो संजीदा कब मसखरी की
हुए ख़ाक हम पर समझना न आया

हंसने से दिल को राहत पहुँचती है
गुदगुदाया खुद को पर हंसना न आया

दर्द की शक्ल क्या चेहरे पर झलकती है
दर्द हो गए हम पर दिखाना न आया

रियाया पे उनके सितम क्या कहें हम
काट ली पूरी गर्दन पर पसीना न आया

हसरत बहुत थी कुछ गुनगुनाएँ हम भी
जुबां पर कभी पर वो गाना न आया

कहते हैं लिखा सब हाथों  की लकीरों मे
फंस गए लकीरों में पर पढ़ना  न आया

न रदीफ़ न काफिया न मतला न मकता
ख़त्म हुए पन्ने   गज़ल कहना न आया
....रजनीश ( 30.06.2011)

Tuesday, May 31, 2011

कार

IMAG0604
चलते-चलते थक कर
किनारे सड़क के
रुकी इक कार से
टिककर कुछ सांसें लेता  हूँ
माथे पर उभर आई हैं बूंदें पसीने की...
पोंछते-पोंछते लगता है
जिस कार का सहारा लिया है
वो जैसे मेरी ही ज़िंदगी है
एक जगह पर "पार्क"
सड़क पर आने के लिए
कुछ सांसें इकठ्ठा करती ...
कार की तरह ही
एक छोटी सी नियत परिधि में
सफर तय करती ज़िंदगी
एक नियत क्रम में
जैसे एक खूँटे से बंधी ...
कितना सीमित कर लिया है
अपनी ज़िंदगी को इन रस्तों में
कितना थोड़ा सा हूँ मैं ...

फिर चल पड़ता हूँ
इस बार एक नई दिशा में
यही सोचकर कि शायद
कुछ और खुल जाऊँ
कुछ और खिल जाऊँ
जो भीतर छुपा हूँ
कुछ और मिल जाऊँ
कुछ और संभावनाएं
कुछ नई शुरुआत
कुछ और सड़क और शिखर खोजूँ
क्यूंकि नहीं परखा है सीमाओं को
बहुत थोड़ा सा ही
जाना है और जिया है
खुद को अब तक ...
...रजनीश (30.05.11)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....