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Saturday, February 22, 2020

समझ



न पाने में न होने में
 कीमत जानी है खोने में

जो बीत गई सो बात गई
अब रक्खा है क्या रोने में

 मिट्टी में  जो सोंधी खुशबू
वो कहां मिलेगी सोने में

काटो तो वक्त नहीं लगता
महीनों लगते है बोने में

पल भर में जो इक दाग लगे
उसे उमर बीतती धोने में

......रजनीश (२२ फरवरी २०२०)






Wednesday, March 13, 2013

झूठे सपनों के पार

















है सूरज निकल पूरब से
 जाता हर रोज़ पश्चिम की ओर
पानी लिए नदियां हर पल
हैं मिलती रहती सागर में

बादल बरस बरस कर
करते रहते हैं वापस
जो धरती से लिया,
हर साल हरी हरी चादरें
ढँक लेती है धरती को इक बार
एक नृत्य हर वक्त
चलता रहता है
संगीत की लहरों पर

बदलते रहते हैं पत्ते
और बदलते पेड़ भी
देखती हैं बदलती फसलों को
खेत की मेड़ भी
ज़िंदगी हर पल लेती  सांस
फूटती कोपलों, पेड़ की डालों में
घोसलों, माँदों में पनपती असल ज़िंदगी
ना है ख्वाबों ना ख़यालों में

सब कुछ कितना नियत
कितना सरल
एक रंग बिरंगा चक्र
पर नहीं जाती मिट्टी की खुशबू
बंद नहीं होता चहकना
बंद नहीं होती पानी की कलकल
बंद नहीं होता पत्तों का हवा संग उड़ना
नहीं फीका पड़ता और
नहीं बदलता कोई भी रंग
सब कुछ वैसा ही खूबसूरत
रहा आता है समय की परतों में

पर  अंदर इस संसार के
है  संसार  और एक
बहुत अजीब और बहुत ही गरीब
जहां रुक जाया करता है  सूरज
सुबह नहीं होती कभी कभी
और कभी बहुत जल्दी आ जाती है शाम
जहां सावन में भी हो जाता है पतझड़
जहां दिन के उजाले में भी अक्सर
नहीं धुल पाता रात का अंधेरा
जहां नृत्य में भी बस जाता है शोक
जहां से  नज़र नहीं आता आँखों को
कायनात का खूबसूरत खेल
जहां नहीं सब कुछ सरल और सीधा
जहां है बहुत कुछ बनावटी
जहां बदरंग लगते नज़ारे
जहां गीत नहीं देता राहत

अजीब सी बात है
जब भी इस झूठी चहारदीवारी
को लांघने की कोशिश करता हूँ
कभी खुद लौट जाते हैं पैर
कभी कोई पकड़कर
खींच लेता है वापस
और मैं खड़ा  इस गरीब
और झूठे संसार से
झांक-झांक बाहर
यही सोचता हुआ हैरान हूँ
कि टूट क्यूँ नहीं जाती
ये मोटी-मोटी दीवारें
ताकि सामने के उस असली संसार से
महक लिए ठंडी मंद बयार
मुझ तक भी आ पहुँचती
और हर सुबह सुबह ही होती
और हर शाम होती एक शाम ...
रजनीश (13.03.2013)  

Thursday, May 19, 2011

सहारे- यादों के

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वो मैं नहीं था
जिसने बर्फीली वादियों में
सुनहली किरणों से चमकती
ज़ुल्फों के साये में
गाया था वो गाना
पर जब भी कानों को
मिलती है उस गाने की आहट
तो पाता हूँ दिल की गहराइयों में ,
मैं गा रहा होता हूँ
कहीं दूर  वादियों में,

वो भीनी सी खुशबू
अब भी है जेहन में
पर उस पल तो नहीं थी
तुम्हारे आस पास
जब तुम्हें देखा था जाते हुए
पता नहीं कब जुड़ गई
तुम्हारी यादों से
जब भी सैर करती
आती है वो खुशबू कहीं से
तुम्हें साथ लिए रहती है

एक आवाज़ जब भी आती है
अतीत में ले जाती है
कभी कोई लम्हा , कभी तो कोई दिन ही
कहीं पहले गुजारा हुआ  लगता है
कभी बचपन की किसी तस्वीर
से बाहर आया हुआ ....

एक स्वाद,
कोई पुरानी कहानी
सुना जाता है
एक स्पर्श और एक पुराना ख़्वाब ...
कभी आईने में देखने पर
आ जाती है अपनी ही याद
खालीपन भी जोड़ लेता है कुछ  यादों को
जब एक अहसास के लिए
जगह बनती है कभी दिल में
तो उससे जुड़ा
टुकड़ा , दिल का चैन
याद आ जाता है 
लोगों की भारी भीड़ में भी ...

यादें सीधी नहीं जुड़ती हमसे
उन्हें जरूरत होती है
एक सहारे या एक बैसाखी की ,
छोटी सी खाली जगह
जो मिल जाए तो फिर से
एक पुराना लम्हा
जी उठता है ...

अब मुझे याद रखना
शायद , तुम्हारे लिए
कुछ आसान हो जाए ...
...रजनीश ( 18.05.11)

Sunday, April 24, 2011

एक नकली फूल

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मत करो
नकली फूल से नफ़रत
मैंने तो उसे एक, अमिट याद सा
दीवार पे लगाया है ,
ये कब से है
वैसा का वैसा ,
असली फूल तो
कुछ पल का साथी है,
उसे एक टहनी से काटकर
गुलदस्ते में लटकाकर
तिल-तिल करके मारते हो
और  उसकी गंध सूंघते हो ,
फिर फेंक देते हो ,
पता नहीं कैसे होता है
तुम्हें ताजगी का अहसास।
फूल को आखिर क्यूँ नहीं
बिखेरने देते खुशबू बगिया में,
जहां उसके पराग से
बनें कई और घर फूलों के,
नकली फूलों पर अगर धूल चढ़ जाये
तो उसे धोकर साफ कर लेना ,
बिलकुल नए हो जाएंगे,
और कुछ फूल बच जाएँगे ...
...रजनीश (22.04.11)
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