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Saturday, January 5, 2013

इक आस














एक रोशनी
बुझते बुझते
एक आग दे गई
दरिंदगी से लड़ती
एक आवाज़ दे गई

खो गई
कहीं आसमां में
इक राह दे गई
हैवानियत ख़त्म करने की
एक चाह दे गई

जूझती रही
बिना थके
दुनिया हिला गई
अत्याचार से लड़ने
कई दिल मिला गई

ना खत्म हो ये जज़्बा
ये सैलाब रुक ना जाए
इक शहादत से जली
ये मशाल बुझ न पाए... 
....रजनीश (05.01.2013)
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