बनाया था जिन्होंने आशियाना
इकठ्ठा कर एक-एक तिनका
जोड़ कर एक-एक ईंट पसीने से
किया था कमरों को तब्दील घर में,
उसकी दहलीज़ पर बैठे वो
आज बस ताकते है आसमान में
और झुर्रियों भरी दीवारों पर लगी
अब तक ताजी पुरानी तस्वीरों से
करते हैं सवाल-जवाब बाते करते हैं ,
धमनियाँ फड़क जाती हैं अब भी
कभी तेज रहे खून के बहाव की याद में
धुंधली हो चली आँखों के आँगन में
आशा की रोशनी चमकती अब भी
कि ऐसा ही नहीं रहेगा सूना ये घरौंदा
और अपने खून से पाले हुए सपने
कुछ पल वापस आकर सुनाएँगे लोरियाँ,
आशा की रोशनी चमकती अब भी
कि सारे काँटों को बीन कर
अपने अरमानों और दीवानगी से
जो सड़क बनाई जिस अगली पीढ़ी के लिए
उनमें मे से कोई तो आएगा
हाथ पकड़ पार कराने वही सड़क ,
हर नई झुर्री से वापस झाँकता
वही पुराना समय पुराना मंजर
जब वो होते थे माँ की गोद में
और बुढ़ाती आँखों में अजब कुतूहल
जानी-पहचानी चीजों को फिर जानने का
और सदा जवान खत्म ना होता जज़्बा
काँपते लड़खड़ाते लम्हों को पूरा-पूरा जीने का ...
...रजनीश (01.10.11)
( 1 अक्तूबर , अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस पर )