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Tuesday, February 26, 2013

एक ख़ोज


सपनों की फेहरिस्त लिए 
रोज़ चली आती है रात 
गुजार देते है उसे, ढूंढते 
फेहरिस्त में अपना सपना 

कुछ तारों को तोड़ रात 
कल सोये साथ लेकर हम 
 गुम हुए सुबह की धूप में 
जैसे गया था बचपन अपना 

हर गली से गुजरते जाते हैं 
 लिए हाथों में तस्वीर अपनी 
अपनों के इस वीरान शहर में 
बस ढूंढते रहते हैं कोई अपना 

कुछ दिल उतर आया था
लाइनों में बसी इबारत में 
लिफ़ाफ़े पर कभी उसका 
कभी पता लिख देते है अपना 

चलते हैं कहीं पहुँचते नहीं 
थका देते ये पथरीले रस्ते 
रस्ता ही तो है वो मंज़िल 
  ज़िंदगी है हरदम चलना 

......रजनीश (26.02.2013)

Tuesday, December 27, 2011

बदलता हुआ वक़्त


महीने दर महीने 
बदलते कैलेंडर के पन्ने 
पर दिल के कैलेंडर में 
 तारीख़ नहीं बदलती  

भागती रहती है घड़ी 
रोज देता हूँ चाबी 
पर एक ठहरे पल की 
किस्मत नहीं बदलती   

बदल गए घर 
बदल गया शहर 
बदल गए रास्ते 
बदला सफर 

बदली है शख़्सियत
ख़याल रखता हूँ वक़्त का 
बदला सब , पर वक़्त की 
तबीयत नहीं बदलती 

कुछ बदलता नहीं 
बदलते वक्त के साथ 
सूरज फिर आता है 
काली रात के बाद 

उसके दर पर गए 
लाख सजदे किए 
बदला है चोला पर 
फ़ितरत नहीं बदलती

क़यामत से क़यामत तक 
यूं ही चलती है दुनिया 
चेहरे बदलते हैं पर 
नियति नहीं बदलती ...
रजनीश (27.12.2011)
एक और साल ख़त्म होने को है पर क्या बदला , 
सब कुछ तो वही है , बस एक और परत चढ़ गई वक़्त की ....

Friday, February 25, 2011

परिचय

DSC00323
पर्वत मैं हूँ स्वाभिमान का,
मैं  प्रेम का महासमुद्र हूँ ,
मैं जंगल हूँ भावनाओं का,
एकाकी  मरुस्थल हूँ मैं  ,

सरित-प्रवाह  मैं परमार्थ का,
मैं  विस्मय का सोता हूँ ,
हूँ घाट एक , रहस्यों का,
संबंधों का  महानगर हूँ मैं ,

झील हूँ  मैं एक शांति की,
मैं उद्वेगों का ज्वालामुख हूँ,
हूँ दर्द भरा काला बादल,
उत्साह भरा झरना हूँ मैं ,

 दलदल हूँ मैं लालच का,
मैं घमंड का महाकुंड हूँ,
हूँ गुफा एक वासनाओं की,
भयाक्रांत वनचर हूँ मैं ,

 दावानल हूँ विनाशकारी ,
मैं  शीतल मंद बयार हूँ ,
हूँ सूर्य किरण का सारथी,
प्रलयंकारी भूकंप हूँ मैं,

मैं हूँ जनक, मैं प्राणघातक,
मैं पोषित और पोषक मैं हूँ,
हूँ इस प्रकृति का एक अंश,
सूक्ष्म, तुच्छ मनुष्य हूँ मैं ..
....रजनीश (25.02.2011)

Saturday, February 12, 2011

मिल गया बसंत...

DSCN1804
कल पढ़ा था अखबार में ,
बसंत आ गया ,
कुछ बासन्ती पंक्तियों के साथ ,
छपी थी एक तस्वीर फूलों  की,
पर खुशबू नहीं मिली उसमें ...
मैंने कोशिश की एक फूल
खींच कर निकालने की,
पर वो पन्ने से बाहर नहीं आया ....
अपने मन को टटोला ,
वहाँ नहीं पहुंचा था बसंत...

बाहर निकला मैं,
रस्ते-रस्ते, गलियों-गलियों
दीवारों ,मकानों, चौराहों सब जगह देखा ,
पर कंक्रीट के जंगल में
बसंत कहीं नहीं मिला,
वो चिड़िया भी नहीं मिली छत की मुंडेर पर,
जो बसंत के पास ही रहती थी,
पता चला उसने वो जगह दे दी है ,
लोहे की एक मीनार को,
तलाशते-तलाशते कई जगह
निशान मिले, उसके कदमों की छाप मिली,
पर बसंत नहीं मिला...
वो तो यहाँ से कब का चला गया था,
और बस यादें अब सिमटी थी उसकी,
एक 'वीभत्स' मुरझाए से कागज के अखबार में ,
जो खुद सबूत  था एक हत्या का,

शहर के छोर पर जो दाई रहती है ,
उसने कहा कि सामने उस गाँव में जाओ,
शायद वहाँ  होगा ,
पर 'गाँव' बीच रस्ते में ही मिल गया ,
वो तो शहर की तरफ भाग रहा था,
पीछे जो जमीन छोड़ी थी उसने
उसके सीने मेँ उगी गहरी धारियाँ
देखकर मैं लौट गया थका हारा,

पर  इच्छा बड़ी तीव्र थी ,
आखिर ढूंढ ही निकाला उसे ,
गाँव से लगी पहाड़ी के पार ,
देख ही लिया उसका संसार
मिट्टी की खुशबू,  झरने की कलकल,
कू-कू की गूंज , खिलती कलियों की अंगड़ाई,
हौले से मटकती बयार के संग झूलती  बौर ,
सुनहली किरणों मेँ चमकता एक-एक रंग ,
वो कर रहा था नृत्य...

प्रेम और जीवन की अभिव्यक्ति हर पल मेँ थी,
हर एक  पत्ते  , हर एक कण मे था वो वहाँ ,
वैसा का वैसा ...
देखना चाहो तो तुम भी आ सकते हो,
पर दबे पाँव आना यहाँ,
अपनी छाप न पड़ने देना मिट्टी मेँ ,
रुकना नहीं यहाँ ,
इसे बस साँसों मेँ भरकर तुरंत
लौट जाना दबे पाँव ,
नहीं तो बसंत भाग जाएगा , समझे ?
..........रजनीश (12.02.2011)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....