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Wednesday, April 20, 2011

एक अलिखित कविता

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सोचता हूँ
तुम्हें लिख दूँ
एक कविता में,
पर पहली-पहली कुछ लाइनें
मुझसे कोरी ही रह जाएंगी,
और कुछ आखिरी
लाइनें  मैं जानता नहीं
पर इतना जानता हूँ
वो नहीं समाएंगी इस पन्ने में,
और बीच में बस
  पहली और आखिरी
लाइनों की दूरी बयां होगी,
अगर लिखूँ तो
बहुत सी लाइनें तो कटी हुई मिलेंगी तुम्हें
और जो शब्द बच गए
पता नहीं 
कब तक रुकेंगे
लाइनों पर,
बहुत से शब्द तो मेरे पास नहीं
तुमने ही रखे  हैं,
और पन्ना भी
बस एक ही है मेरे पास...
...रजनीश (19.04.11)
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