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Thursday, October 22, 2020

अपेक्षा

सूरज से अपेक्षा 
धूप दे पर लू नहीं

बादल से अपेक्षा 
पानी दे पर बाढ़ नहीं

हवा से अपेक्षा 
ठंडक दे पर आंधी नहीं

रास्ते से अपेक्षा 
मंजिल दे पर छाले नहीं 

धरा से अपेक्षा 
जगह दे पर भूकंप नहीं 

मित्र  से अपेक्षा 
सवाल करे  पर विरोध नहीं 

पड़ोसी से अपेक्षा
मदद करे पर मांगे नहीं 

बच्चे से अपेक्षा 
मांग करे पर रूठे नहीं 

साथी से अपेक्षा
सब सुने कुछ पूछे नहीं 

ऊपरवाले से अपेक्षा
सुख दे पर दर्द नहीं

जीवन का अंत है 
अपेक्षाओं का अंत नहीं 

......रजनीश ( २२.१०.२०२०, गुरुवार)

Friday, May 30, 2014

अच्छे दिन


अच्छे दिन ....

कौन से दिन होते हैं अच्छे
जिस दिन होता हूँ मैं अच्छा
या जिस दिन होते हो तुम अच्छे
या जिस दिन मैं तुम्हारे लिए अच्छा
या जिस दिन तुम मेरे लिए अच्छे

कौन से दिन होते हैं अच्छे
जिस दिन हम दोनों ही हों अच्छे
या सारा जग ही हो अच्छा
या जिस दिन हम जग के लिए अच्छे
या जिस दिन जग हमारे लिए अच्छा

कौन से दिन होते हैं अच्छे
जिस दिन की जब बीती रात अच्छी
या जिस दिन की सुबह अच्छी
या जिस दिन की दोपहर शाम अच्छी
या जो दिन पूरा का पूरा अच्छा

कौन से दिन होते हैं अच्छे
जिनसे पहले बीते हों बुरे दिन
या जिनके आगे हों बुरे दिन
या जो कभी बीते ही नहीं वो दिन
या जो कभी आते ही नहीं ऐसे दिन

कौन से दिन होते हैं अच्छे
मुट्ठी भर अच्छे पलों वाले दिन
या ढेर सारे अच्छे पलों वाले दिन
या  जो बीत गए वो पुराने हुए  दिन
या जो आएंगे वो उम्मीदों वाले दिन

अच्छा दिन गर खोजें तो सपना है
अच्छा दिन गर जी लें तो अपना है
जो सच होता है वर्तमान में
अच्छा दिन ना बीतता है
अच्छा दिन ना आता है
जो जीता है वो पाता है
अच्छा दिन बस होता है
अभी यहीं हर कहीं
आज है अच्छा दिन ......

रजनीश ( 30.05.2014)

Thursday, February 20, 2014

एक धारा


एक धारा
बहती हुई
रेत पत्थरों के समंदर में
बिखर जाती है
टूट जाती है
खंड-खंड हो
खो जाती है
उसका रास्ता ही
बन जाता है
उसका दुश्मन
उसके हमसफर ही
बन जाते हैं
उसके लुटेरे
और एक जलमाला
पैदा होते होते
वाष्पित हो जाती है

एक धारा
बूंद-बूंद बढ़ती है
और धाराओं को मिलाती
पाटों को सींचती
जीवन बांटती
पहाड़ों को चीरती
सपने बसाती
समंदर हो जाती है
उसका रास्ता ही
उसे बनाता है
अमृता सरिता तरंगिणी निर्झरिणी

धारा है संभावना
बूंदें है शक्ति का संचय
बहने की ललक है ऊर्जा
रास्ता है नियति
प्रवाह की दिशा
लिख देती है
धारा का पूरी कहानी

पर मुड़ सकती है धारा
बदल  सकता है
उसके हाथ की लकीरों का मिजाज
बदला जा सकता है उसका रूप
बदला जा सकता है
रास्ता धारा का
ताकि बदल सके बना सके वो
अनगिनत जीवनों का भविष्य

ऐसी एक धारा कहलाती है यौवन ...
  ...रजनीश (20.02.2014)
                                                                  National Youth Day 
                                                                  12 January को समर्पित  

Monday, July 8, 2013

क्या है जीवन ?
















क्या है जीवन ?
हर घड़ी साँसे लेना
ताकि प्राण रहे
रक्त में शक्ति प्रवाहित हो
क्या है जीवन ?
हर दिन खाना
ताकि रक्त बने
अस्थि मज्जा पोषित हो
क्या है जीवन ?
हर दिन काम करना
ताकि अंग-प्रत्यंग स्फूर्त हों
क्या है जीवन ?
हर दिन विश्राम
ताकि शरीर तरोताजा रहे
हर दिन ध्यान
ताकि चित्त शांत रहे
क्या है जीवन?
अपने अस्तित्व की रक्षा
और अपना पुनरुत्पादन
क्या यही है जीवन ?
क्या इतना सरल और सीधा है समीकरण ?
लगता तो है , पर लगता है
ये है नहीं ऐसा ...
क्या है जीवन ?
मस्तिष्क का विकास ?
जीवन में मस्तिष्क का आगमन ...
और जीवन से बड़ी होती गई
जीवन की राह
अस्तित्व की रक्षा से बड़ा होता गया
अस्तित्व का प्रश्न ...
जीवन की राहों से
जीवन तक पहुँच पाना
कठिन होता गया
साध्य से ज्यादा हो गया
साधन का महत्व ...
मस्तिष्क का विकास ?
और वास्तविक अर्थों पर चढ़ गया
तर्क , कल्पना , भ्रम, लालसा
भय और महत्वाकांक्षा का मुलम्मा
धीरे-धीरे अस्तित्व की लड़ाई में
मस्तिष्क ने सब कुछ
क्लिष्ट और दुस्साध्य बना दिया
क्या यही है जीवन ?
और विकास के इन सोपनों पर
जीवन की परिभाषा
एक अबूझ पहेली बन गई  ...

...रजनीश ( 08.07.2013)

Thursday, June 6, 2013

कार्बन फुट-प्रिंट और फूड-प्रिंट

1. कार्बन फुट-प्रिंट 
चलते रहने का नाम है ज़िंदगी  
एक रास्ते पर चलने का सिलसिला
हर कदम पर एक नई चुनौती
हर मील के पत्थर पर लिखी एक दास्तान
बढ़ते कदम छोडते हैं
धूल की चादर पर
एक इतिहास
एक छाप

जंगलों को काटते हुए
जब से बनाया है रास्ता
बन रही है मेरे हर कदम पर  
एक काली जहरीली छाप
एक अभिशाप
जमीन के सीने पर
मेरा कार्बन फुट-प्रिंट
जिसका कालापन
उड़कर छा जाता है 
मेरी ही आँखों पर 
सांसें भी रुँधने लगती हैं जिससे
डगमगाने लगते हैं कदम
बैठ जाता हूँ सुस्ताने लगता हूँ 
एक फटी हुई हरी चादर पर 

रास्ते को घेरे एक हरी चादर
जिस पर सिसकते हैं ज़ख्म
इतने सारे, कि हरा रंग ही हो गया मटमैला
और टुकड़े-टुकड़े चादर कुछ खो सी गई है 
अपनी जैसी ही पर एक बेजुबान ज़िंदगी की 
डगालें काट-काट कर 
कितनी वीरनियाँ बो दी हैं मैंने चारों ओर
और जहर मिला दिया है नदिया में
कि अब बादलों की आँखों से
गिरने लगा है तेज़ाब

मील के पत्थर पे सुस्ताते हुए
एक नया पौधा लगाता हूँ
धुआँ कुछ छँटता है
रास्ता कुछ साफ होता है
मैं नज़र आने लगता हूँ मुझे 
दिखने लगती है ज़िंदगी 
मेरी ज़िंदगी सीमित नहीं मेरे तक
मेरी साँसे तो उस पेड़ की हैं
जो रास्ते के किनारे 
एक हरी चादर लिए 
देता है मुझे आसरा
मेरा ही हिस्सा है वो

अपनी ही शाखें काटते-काटते
आखिर कितनी दूर जा सकूँगा मैं
फिर कुछ मोड लेता हूँ अपना रास्ता
और फिर उसी पुराने रास्ते पर आ जाता हूँ
जो कायनात ने बनाया था कभी मेरे लिए
करता हूँ कोशिश
ना भटकूँ , ना भूलूँ अपनी राह
ना उतरूँ अपने रास्ते से
ताकि कम से कम लगे कालिख
जी सकें सभी 
और कम से कम

फैलें मेरे कार्बन फुट-प्रिंट..........  

2. फूड-प्रिंट 

दाने दाने पे लिखा है खाने वालों का नाम,
पर किसी दाने पर नहीं, ऐसे भी लाखों नाम ।

जिन दीवारों के भीतर अनाज सड़ा करते हैं,
उन दीवारों के सहारे पड़े भूखे मरा करते हैं ।

चांदी की तश्तरी में वो इतनी छोडते हैं जूठन,  
एक परिवार की मिट जाए जिससे पेट की अगन ।

एक पेड़ ही लगाओ कि कम हो जाए कार्बन फुट-प्रिंट,
सोच समझ के खाओ अन्न बच जाए घटे फूड-प्रिंट ॥  
.......रजनीश ( 05.06.2013 )

World  Environment  Day , 5th  June   के अवसर  पर 
संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित यह दिवस पर्यावरण के
 प्रति वैश्विक स्तर  पर राजनितिक और सामाजिक जागृति
 लाने के लिए मनाया जाता है। इसकी शुरुआत १९७२ ई। में ५ जून से १६ जून तक
 संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा आयोजित विश्व पर्यावरण सम्मेलनसे हुई। 
(विकीपीडिया  से साभार)







The theme for this year’s World Environment Day celebrations is Think.Eat.Save. Think.Eat.Save is an anti-food waste and food loss campaign that encourages you to reduce your foodprint. According to the UN Food and Agriculture Organization (FAO), every year 1.3 billion tonnes of food is wasted. This is equivalent to the same amount produced in the whole of sub-Saharan Africa. At the same time, 1 in every 7 people in the world go to bed hungry and more than 20,000 children under the age of 5 die daily from hunger.  

Monday, May 27, 2013

जैव विविधता










सूरज की श्वेत किरणों में
समाये हैं सब रंग
किरणों के अभाव में है
काला भयावह अंधेरा
श्वेत और काले आयामों के बीच
सांस लेती है एक खूबसूरत तस्वीर
सूरज चलाता है ब्रश
मिला सब रंगों को इक संग
श्वेत किरणें बरसती
धरती के कैनवास पर
और सांस लेते रंग चहुं ओर
बिखेरते इंद्रधनुषी छटा
एक ऐसा कैनवास 
जो फैला जल थल और नभ पर 
सुंदरता जन्म लेती है
इस विविधता में 
और साँसे लेता है जीवन
अपने असंख्य स्वरूपों में
एक रंग का अस्तित्व और
उसकी सुंदरता
दूसरे रंग के होने में है
हर रंग जरूरी है
प्रकृति का हर रूप जरूरी है
संगीत की पूर्णता में
लगता है हर सुर
सुर हैं स्पंदन हृदय का
जीवन का अंतरनाद
हर तरंग हर ताल हर स्वर
जुड़े है ज़िंदगी के रूपों से
जीवन संगीत है
हर सुर जरूरी है
जीवन का हर रूप जरूरी है
जीवन के पल रंगबिरंगे 
विशिष्ट गंधों से सुवाषित
अपनी सुर ताल में नाचते
बनाते तस्वीर एक जीवंत
सूरज ने दी श्वेत किरणें
ताकि मिले सब रंग
ना रह जाए तस्वीर अधूरी
इसलिए कोशिश करें
बटोरें बचाएं हर रंग
ताकि तस्वीर बने पूरी

.......रजनीश (27.05.2013)

बायोडायवर्सिटी यानि 
"जैव विविधता " को समर्पित 
The International Day for Biological Diversity 
(or World Biodiversity Day) is a United Nations
sanctioned international day for the promotion of biodiversity issues

Wednesday, May 8, 2013

माता तेरे रूप अनेक

सृजन की शुरुआत हुई
वजूद बनाए रखने की चेष्टा
विपरीत परिस्थितियों
को झेलते हुए ,
समय , किस्मत से
संघर्ष के उपरांत
अंततः बीजरूप बन गई

प्रकृति ने दिया था उसे
एक छोटा सा आवरण  
जो बचा सके जीवन की आशा
विनाश के चंगुल से ,
हवा के संग
सूक्ष्म संभावना
धरती के पास पहुंची  

अपनी कोख में धरती ने रख लिया
उसे जगह दी उसे पोषित किया
और सही समय का इंतज़ार करती रही  
धरती की मदद को हाथ बढ़ाया माली
जिसने बचाया इस बीज को कुचलने से
धरती को पानी और पोषण दे
बीज को दी दस्तक बाहर आने की

और फिर हुआ जीवन का प्रस्फुटन
बीज ने धकेल कर अपने कमरे को तोड़ दिया
बीज से बन गया था अंकुर
और धरती ने हौले से प्यार से
उसे बाहर की ओर धकेला
उसकी अंगुली माली को पकड़ा दी

माली सहेजता रहा ये आशा
जीवन के पनपने की ये कोशिश
धरती की मदद और अंकुर को सहारा
माली लगा रहा
अंकुर के अपने पैरों पर खड़े होने तक  

जीवन की संभावना को
जीवन रूप में फलीभूत ,
पोषित करना मातृत्व है
धरती है माँ का रूप
माँ का अंश है हवा में
जिसने बीज को धरती तक पहुंचाया
माँ का अंश है पानी, धूप
और अन्य तत्वों में
जिन्होने बीज को पोषण दिया
माँ का अंश है माली में
जिसने दाई का फर्ज़ निभाया
माँ धारण करती है एक वृहत रूप
जिसमें सृजन , पोषण , लालन –पालन
जीवन को बचाए रखने सँवारने का
हर साधन, हर कण, हर क्षण समाया है   
मातृत्व जीवन देने वाला संघर्ष है
पुण्य कार्य है , भावना है ,यज्ञ है
....रजनीश ( 08.05.2013)
 International Midwives' Day 5th मई
   को अनेक देशों में मनाया जाता है।         
यह रचना midwifery प्रॉफ़ेशन को समर्पित है । 

Wednesday, July 4, 2012

कुछ दोहे - एक रपट

ये चित्र - गूगल से , साभार 














महीना आया सावन का
बारिश का इंतज़ार
हम देख आसमां सोचते
कैसी  मौसम की मार

रुपया चला रसातल में
डालर से अति  दूर
क्या खर्चें क्या बचत करें
हालत से मजबूर

महँगाई सुरसा हुई
तेल स्वर्ण हुआ जाए
गाड़ी से पैदल भले
सेहत भी चमकाए

है यू एस में गुल बिजली  
और जन-जीवन अस्त-व्यस्त 
हुआ प्रकृति की लीला से
सुपर पावर भी त्रस्त

गॉड पार्टिकल खोज कर
इंसान खूब इतराए
गर हों तकलीफ़ें दूर सभी
तो ये बात समझ में आए

कहीं पर पब्लिक क्रुद्ध है
कहीं होता गृह युद्ध
इस अशांत संसार को
फिर से चाहिए बुद्ध
......रजनीश (04.07.12)

Sunday, January 22, 2012

बचपन की बात


बचपन के दिन थे 
कुछ ऐसे पल छिन थे 
ऊपर खुला आसमां था 
पूरा शहर अपना मकां था 

हर बगिया के बेर 
होते अपने थे 
खेलते कंचे और  
बुनते सपने थे 

ना दुनियादारी की झंझट 
ना कोई नौकरी का रोना 
बस काम था पढ़ना 
खेलना-कूदना और सोना  

पर तब क्या सब मिल जाता था 
क्या जैसा चाहा  हो जाता था 
क्या दिल तब नहीं दुखता था 
क्या कांटा तब कोई नहीं चुभता था 

दिल चाहता था उड़ना बाज की तरह 
खो जाना वादियों में गूँजती आवाज़ की तरह 
हर खिलौना  मेरी झोली में नहीं था 
मेरा बिछौना भी मखमली नहीं था 

बचपन में ही जाना पराया और अपना 
कि सच नहीं होता है हर एक सपना 
सीखी बचपन में ही चतुराई और लड़ाई 
अच्छे और बुरे की  समझ भी बचपन में आई 

अफसोस तब भी 
दर्द तब भी होता था 
कुंठा तब भी 
प्यार तब भी होता था 

कुछ बातें ऐसी थी 
लगता बचपन कब बीतेगा 
जैसे नियंत्रण में रहना 
और पढ़ना कब छूटेगा 

बस उम्र ही कम थी 
और सब कुछ वही था 
थोड़ी सोच कम थी 
इसलिए सब लगता सही था 

उत्सुकता ज्यादा 
और शंका कम थी 
सौहार्द्र ज्यादा और
 वैमनस्यता कम थी 

पर थे सब एहसास 
हर भावना मौजूद थी 
लगते थे संतोषी 
पर हर कामना मौजूद थी 

बचपन है आखिर जीवन का हिस्सा 
दिन वही और रात वही है 
बस कुछ रंग हैं अलग 
तस्वीर वही और बात वही है 

कोई बचपन महलों में रहता 
कोई फुटपाथ पे सो जाता है 
किसी को सब मिल जाता है 
कोई बचपन खो जाता है 

हर बचपन एक जैसा नहीं होता 
जैसे नहीं हर एक जवानी 
अलग अलग चेहरे हैं सबके 
सबकी अलग कहानी 
...रजनीश (22.01.2011)

Wednesday, December 21, 2011

प्यार भरी बातें


हो दिन या हो रात 
है प्यारा साथ तुम्हारा 
प्यार ही प्यार हो तुम
देखा प्यार तुम्हारा

बड़ी अच्छी लगती हैं 
बातें प्यार की और प्रिय.. तुम  
बड़े अच्छे लगते हैं 
ये धरती ,नदिया ये रैना और .. तुम 

इंतज़ार प्रियतम का 
बिछोह सहा ना जाए 
जो मिल जाएँ सनम 
तो फूल  भी गुनगुनाएँ 

ये सब प्यार की बातें 
ये प्यार भरी बातें 
इज़हार की बातें 
इकरार की बातें 
वफ़ादारी की दास्तान 
और बेवफाई की बातें 

प्यार भरी लाइनों को 
चाहता है पढ़ना हर कोई 
प्यार में डूबे शब्दों को 
पी लेना चाहता है हर कोई 

प्यार पर कुछ लिखा
तो शब्दों में रस घुले 
लोग पढ़ें , दाद दें 
सपनों की दुनिया में चलें 

प्यार प्रधान है जीवन हमारा 
प्यार आधार प्यार मक़सद हमारा 
इसलिए अच्छी लगें बातें प्यार की
करो प्यार, ना मिलेगी ज़िंदगी दोबारा 
...रजनीश (21.12.2011)

Saturday, August 13, 2011

असलियत


DSCN4217
नापना चाहते हो अपनी ऊंचाई
हिमालय के सामने खड़े हो जाना
जानना चाहते हो अपनी गहराई
सागर की लहरों में झांक लेना
परखना चाहते हो अपनी सीमा
क्षितिज को छूने की कोशिश करना
महसूस करना चाहते हो अपनी व्यापकता
बादलों के ऊपर से उड़ कर देखना

तब पाता चलेगा  तुम्हें
कितने छोटे हो तुम
कुछ भी तो नहीं
एक अंश मात्र
चोटी पर पहुँच कर
तुम हिमालय नहीं बन सकते
सागर को पार कर तुम सागर नहीं बन जाओगे

अपने चारों ओर जो ताना-बना बुना है तुमने
वो कितना कमजोर कितना झूठा है
तुम पहुँच गए दूर ग्रहों तक
बस एक तितली की तरह

तुम्हारा वजूद तुम्हारी धारणाएँ
तुम्हारा स्वत्व तुम्हारी शक्तियाँ
सिर्फ भ्रम है तुम्हारा ही पैदा किया हुआ
तुम और तुम्हारा ये विशाल मायाजाल
कुछ भी तो नहीं
तुम सिर्फ एक लहर हो
जो सिर्फ कुछ पलों के लिए होती है
और फिर गिरकर  खो  जाती है
सागर के सीने में 

इसीलिए झुको ,
धरती की गोद में  बैठकर देखो 
एक बच्चा बनकर
और बह जाओ
जीवन की धारा में
तिनके की तरह
.....रजनीश (12.08.2011)

Tuesday, August 9, 2011

सूरज से एक प्रार्थना


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हे सूर्य ! तुम्हारी किरणों से,
दूर हो तम अब, करूँ पुकार ।
बहुत हो गया कलुषित जीवन,
अब करो धवल  ऊर्जा संचार ।

सुबह, दुपहरी हो या साँझ,
फैला है हरदम अंधकार ।
रात्रि ही छाई रहती है,
नींद में जीता है संसार ।

तामसिक ही दिखते हैं सब,
दिशाहीन  प्रवास सभी ।
आंखे बंद किए फिरते हैं...
निशाचरी व्यापार सभी ।

रक्त औ रंग में फर्क न दिखे,
भाई को भाई   न देख सके ।
अपने  घर में ही  डाका डाले,
सहज कोई पथ पर चल न सके ।

हे सूर्य ! तुम्हारी किरणों से,
दूर हो तम अब, करूँ पुकार ।
भेजो मानवता किरणों में,
पशुता से व्याकुल संसार ।
....रजनीश (15.01.11) मकर संक्रांति पर
(ब्लॉग पर ये रचना पहले भी पोस्ट  की थी मैंने  पर तब नया नया सा था  
शायद आपकी नज़र   ना  पड़ी हो इस पर  इसीलिए  इच्छा  हुई कि  दुबारा पोस्ट  करूँ   )

Thursday, August 4, 2011

मंज़िल

021209 206

आओ उस ओर चलें
जीवन की धारा में
हँसते हुए , दुखों को साथ लिए
आओ चलें ,
थामे हाथ , एक स्वर में गाते
एक ताल पर नाचते पैर
 बैठें उस नाव में और बह चलें
आओ उस ओर चलें

आओ चलें
पार करें मिलकर वो पहाड़
जो फैलाए सीना रोज शाम
सूरज को छिपा लेता है अपने शिखर के पीछे
आओ चलें
लांघें उसे क्यूंकि उसके पीछे ही है
 मीठे पानी की झील
आओ उस ओर चलें

कांटो से होकर खिलखिलाते फूलों की ओर,
आओ चलें उस मंजिल की ओर
जो जीवन में ही समाई है ,
कहीं दूर नहीं बस उन तूफानों और बादलों के बीच,
आओ उस ओर चलें
....रजनीश

DSCN1762

Wednesday, August 3, 2011

हस्तरेखाएँ




















रेखा -ओ- रेखा ,
मैंने तुझको देखा......
तू धारा है इक नदिया की
निकली तू मणिबंध से
और पहुँच गयी अनामिका तक-  पर  है क्यूँ  तू कटी-फटी ?

रेखा-ओ-रेखा ,
मैंने तुझको देखा..............
तू है इक पगडंडी -
गुरु पर्वत की तलहटी से 
लगाती शुक्र के घर का  चक्कर
पूरी जमीन पार कर गई-    पर कितना हूँ जिंदा मैं  ?

रेखा-ओ-रेखा
मैंने तुझको देखा......
तू  लकीर है एक जख्म की
देख तुझे  लगता है जैसे ,
 हृदय पर तू   कटार से खिंची
तुझमें हंसने रोने का हिसाब है, तू धड़कती क्यूँ नहीं ? 

रेखा-ओ-रेखा
मैंने तुझको देखा....
तू तो रेल की पटरी लगती
बना रखा है इक सम अंतर ,
दिल तक जाती रेखा से
बताओ  तुम पर ही चलूँ या  गुजरूँ बगल के रस्ते से?

रेखा-ओ-रेखा
मैंने तुझको देखा .....
जैसे लाइन खिचीं कागज पर ...
नहीं थी  कल  तू  यहाँ
आज इधर चली आई  है  ?
मैंने नहीं  बुलाया  फिर  यहाँ तू  क्यूँ  निकल आई है  ?

रेखा-ओ-रेखा
मैंने तुझको देखा ......
तू है  रेत का समंदर,
अपने कदमों की छाप देखता हूँ तुम पर  
पर एक छोर तेरा अब तक कोरा ...
गर पहुंचूँ  उस छोर तक तो वहाँ  क्या तू मिलेगी ?

रेखा-ओ-रेखा
मैंने तुझको देखा
किसने खींचा है तुझे ,
बना रही  तू जाल मिल  रेखाओं से
 समझती है  क्या मैं तुझे  मिटा न पाऊँगा
 कर ले खड़े अवरोध मैं तो पार निकाल कर जाऊंगा

( भाग्य , हृदय, मष्तिस्क , और शक्ति से मिलकर बना हमारा जीवन ...हाथ पर बनी रेखाएँ इन्हें इंगित करती हैं -(हृदय रेखा, मष्तिस्क रेखा , भाग्य रेखा ,जीवन रेखा और भी ढेर सारी रेखाएँ ),पामिस्ट कहते हैं ऐसा ...इन्हीं हस्तरेखाओं पर हुआ लिखने का मन तो ये कविता बनी ...
......रजनीश (28.12.2010)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....