कुछ लाइनें अधलिखी
कुछ बातें अनकही
कुछ रातें अकेली
रह जाती हैं
कुछ झरोखे अधखुले
कुछ लम्हे अधसिले
कुछ किताबें अनछुई
रह जाती हैं
कुछ कदम भटके
कुछ जज़्बात अटके
कुछ कलियाँ अधखिली
रह जाती हैं
कुछ ख़याल बिसरे
कुछ सपने बिखरे
कुछ मुलाकातें अधूरी
रह जाती हैं
रजनीश (03.04.2012)
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Tuesday, April 3, 2012
Friday, April 22, 2011
शीर्षक
अगर कोई शीर्षक
ना दिया होता
तो क्या तुम इसे नहीं पढ़ते ?
और अगर पढ़ लेते
फिर जरूरत ही क्या
तुम्हें शीर्षक की ?
क्या तुम तय करते हो इससे ,
पढ़ना या ना पढ़ना ?
पर शीर्षक , कोई कविता तो नहीं
उसका एक अधूरा, अत्यल्प आभास है,
वो तो दीवार पर लगी एक तख्ती भर है,
जो बताती है कि यहाँ पर लगा है
जज़्बातों का अनंत ढेर,
इसे खँगालो और अपना मोती ले जाओ ..
शीर्षक पर मत जाओ
वो तो बस एक नाम ही है ...
...रजनीश (21.04.11)
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