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Tuesday, April 3, 2012

आधे अधूरे

कुछ लाइनें अधलिखी
कुछ बातें अनकही
कुछ रातें अकेली
रह जाती हैं

कुछ झरोखे अधखुले
कुछ लम्हे अधसिले
कुछ किताबें अनछुई
रह जाती हैं

कुछ कदम भटके
कुछ जज़्बात अटके
कुछ कलियाँ अधखिली
रह जाती हैं

कुछ ख़याल बिसरे
कुछ सपने बिखरे
कुछ मुलाकातें अधूरी
रह जाती हैं

रजनीश (03.04.2012)

Friday, April 22, 2011

शीर्षक

021209 203
अगर  कोई शीर्षक
ना दिया होता 
तो क्या तुम इसे नहीं पढ़ते ?
और अगर पढ़ लेते
फिर जरूरत ही क्या
तुम्हें शीर्षक की ?
क्या तुम तय करते हो इससे ,
पढ़ना या  ना  पढ़ना ?
पर शीर्षक , कोई कविता तो नहीं
उसका एक अधूरा, अत्यल्प आभास है,
वो तो दीवार पर लगी एक तख्ती भर है,
जो बताती है कि यहाँ पर लगा है
जज़्बातों का अनंत ढेर,
इसे खँगालो और अपना मोती ले जाओ ..
शीर्षक पर मत जाओ
वो तो बस एक नाम ही है ...
...रजनीश (21.04.11)
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