कोहरे की परत में
कुछ यूं ढँक जाती है ज़िंदगी
कि हाथ को हाथ नहीं सूझता
क्या मंज़िल , रास्ता ही नहीं दिखता 
सर्द हवाएँ फैलाती हैं कोहरा हर तरफ 
रोशनी हो जाती है गुम 
पता सूरज का भी नहीं चलता 
अंधे हुए जाते कदम 
जाने किस ओर लिए जाते हैं 
हैं कोहरे में चलते साथ लोग 
पर राह में कोई साथ नहीं दिखता 
ये आता भी तभी है जब जागने का वक्त हो
नए सूरज की रोशनी में कहीं चलने का वक्त हो 
कभी कोहरा संग तूफान लिए आता है
किसी पत्थर से टकरा ज़िंदगी ले जाता है
कभी कोहरा संग तूफान लिए आता है
किसी पत्थर से टकरा ज़िंदगी ले जाता है
सब कुछ थमा देने वाला कोहरा भी छंट जाता है
छूटा जो हाथ था वो हाथ मिल जाता है
जैसा वो आता है वैसा ही चला जाता है 
जो गुम हो गया था वो रास्ता मिल जाता है 
कोहरा जो बाहर है वो तो सीख है वक्त की 
ये कोहरा था बाहर का पर एक कोहरा है भीतर भी 
भीतर के कोहरे का कोई वक्त न कोई मौसम 
भीतर के कोहरे की न कोई सीमा न कोई उम्र   
एक का एहसास होता है उसके आने पर 
दूजे का एहसास होता है उसके जाने पर 
एक का इलाज़ बस इंतज़ार , नहीं लड़ना 
दूजे का इलाज़ बस इंतज़ार नहीं; लड़ना 
यानि ...
बाहर के कोहरे से डरो , ना लड़ो 
भीतर के कोहरे से डरो ना, लड़ो ...
.........रजनीश (28.12.14)
1 comment:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
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